गुरु पूर्णिमा पर पढ़िए प्रशान्त करण का यह लेख, जिसमें व्यंग भी है और यथार्थ भी

गुरु पूर्णिमा पर पहले आज की बातः

आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा की पुण्य तिथि है। इसे गुरु पूर्णिमा कहा जाता है।आज के ही दिन पराशर मुनि के पुत्र महर्षि वेदव्यास जी @ कृष्णद्वैपायन का जन्म हुआ था। महर्षि वेदव्यास जी ही चारों वेदों, उपनिषदों,अठ्ठारह पुराणों, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, श्रीमद भगवतगीता आदि पवित्र ग्रन्थों के संकलन रचाईता थे। क्योंकि यह सभी ग्रन्थ हज़ारों वर्षों से हमारे समाज में श्रुति के रुप में पीढ़ियों से चले आते हुए विद्यमान तो थे लेकिन लिपिबद्ध नहीं हुए थे। इसलिए उनको गुरु मानते हुए उनके प्रति आदर, सम्मान, कृतज्ञता व्यक्त करने के उद्देश्य से गुरु पूर्णिमा मनाया जाने लगा।

सुखद संयोग ही है कि आज के दिन हमारी आदरणीया धर्मपत्नी जी का अवतरण दिवस भी है।  अन्य मध्यमवर्गीय भारतीय पतियों की तरह मैं  भी अपनी धर्मपत्नी जी को ईश्वरतुल्य,आदरणीया मानता हूं और घोषित करने की हिम्मत भी रखता हूँ।उन्हें बेधड़क, सरेआम ईश्वर तुल्य बताना भावी संकटों से मुक्ति का एक सरल मार्ग जो है। खैर इस विषय पर अन्त में।

गुरु को देवतुल्य माना जाने लगा और उसकी तुलना सनातन धर्म के दृष्टिकोण से संसार के निर्माण,कार्यपालन और संहार के देवता ब्रह्मा,विष्णु,महेश से की गई। गुरु का अर्थ है अंधकार निरोधक अर्थात तमसो माँ ज्योतिर्गमय। संसार की पहली शिक्षा माता से ही प्राप्त होती है,अतएव माता को प्रथम गुरु की संज्ञा भी दी जाती है।

भारतीय पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार शिव को आदि गुरु कहा जाता है। बताया जाता है कि करीब पंद्रह हजार वर्षों से भी पूर्व ही आज के ही दिन शिव ने सप्तऋषियों को पहला शिष्य बनाया और उन्हें योगिक विज्ञान की शिक्षा दी जो इस ज्ञान को लेकर संसार में आए। आज के ही दिन करीब छब्बीस सौ वर्ष पूर्व सारनाथ में तथागत बुद्ध ने पांच भिक्षुओं को धर्म का पहला उपदेश दिया था, जिसे प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। बौद्ध धर्मावलंबी आज के दिन संघदिवस के रूप में मनाते हैं। जैन धर्म के प्रवर्तक 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने आज के ही दिन इन्द्रमुनि गौतम को अपना पहला शिष्य बनाया था। जैन धर्मावलंबी आज के दिन त्रिनोक गुह्य पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं।

इतनी भूमिका के बाद अब मूल विषय पर लौटता हूँ।प्राचीन भारतीय संस्कृति में बच्चे  गुरु के आश्रमों में निवास कर शिक्षा ग्रहण करते थे और पूरा समाज इस पर पूरी श्रद्धा और भक्ति से खर्च करता था।राजाओं द्वारा गुरुओं के आश्रम का भी खर्च सहर्ष उठाया जाता था।इन्हीं आश्रमों में कई ऋषि-मुनि रहा करते थे और विद्या दान किया करते थे।यही आश्रम गुरुकुल के रूप में प्रतिष्ठित हुए।इन गुरुकुलों में सामाजिक ,आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, शस्त्र-चालन का ज्ञान दिया जाया करता था और पूरे ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता था।इसका एकमात्र उद्देश्य यह था कि भारतीय संस्कृति के परिवेश में हर प्रकार के ज्ञान बच्चों में भर दिए जाएं और उन्हें श्रेष्ठ मनुष्य बनाया जाए।

पहले के गुरु बड़े समर्पित भाव से गुरुकुल के बच्चों के सर्वांगीण विकास पर व्यक्तिगत ध्यान देकर उन्हें विकसित कराते थे।यह परम्परा हज़ारों वर्षों तक चली।विदेशी आक्रमणों का पहला लक्ष्य हमारी इस पारंपरिक शिक्षा पद्धति को प्रभावित कर नष्ट करना बना।फलस्वरूप समय के साथ शिक्षा व्यवस्था में भी उनकी उपयोगिता के अनुसार परिवर्तन होने लगा।जब संस्थाएं अपना मूल स्वरूप त्याग कर परिवर्तित होने लगी तो गुरुओं की निष्ठा,समर्पण, ज्ञान आदि में भी इसका प्रतिकूल असर पड़ा।हम भारतीय संस्कृति को ताक पर रखते चले गए और विदेशी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव में आते चले गए।गुरुओं पर भी इसका कुप्रभाव पड़ने लगा।

आज के गुरु को पहले अपनी सुख-सुविधा की अधिक चिंता होती है और बच्चों के भविष्य निर्माण की बाद में।आज के छात्रों का वह चरित्र निर्माण नहीं हो रहा जो गुरुकुलों के माध्यम से हुआ करता था और न ही गुरुओं में उस समर्पण की भावना देखी जाती है।आज अर्थ ही संस्कृति का धारक जो बन बैठी है।

इस पृष्ठभूमि के बाद अब अपने असली औकात यानी व्यंग पर आता हूँ। आज के अधिकतर गुरुओं की लीलाओं पर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि

गुरु-गोविंद दोउ खड़ें, का के लागूं पाय

बलिहारी आधुनिक गुरु की, बिना उद्यम सफलता-सम्पन्नता दिलाय

अब एक रोचक प्रसंगः

गोबर दास सैंकड़ों एकड़ जमीन के बड़े सम्पन्न  किसान के बेटे थे।पिता की इच्छा थी कि एकलौता बेटा कम से कम परिवार के इतिहास का पहला पढा-लिखा हो।पर नियति के आगे किसी की चलती नहीं।गोबर दास  अपने नाम को धन्य करते हुए दूसरी कक्षा से आगे नहीं पढ़े।पारिवारिक सम्पन्नता के कारण विवाह हो गया। पर पिता की इच्छा उनके मन में गड़ी थी। उनका गांव शहर से सटा था।

शहर फैलने लगा तो गांव सिकुड़ कर शहर में मिलने लगा।अब पचास एकड़ जमीन की कीमत करोड़ों में हुई तो गोबर  दास ने पचास एकड़ जमीन बेच दी और उस पैसे से एक बड़ा  स्कूल खोल दिया।मास्टर अजबलाल की देखरेख में स्कूल चला।इसी बीच मास्टर अजब लाल की कृपा से गोबर दास को बीए की डिग्री का जुगाड़ कुछ लाख में हो गया।

अब उनकी इच्छा एमए की हुई।चार वर्षों बाद यह भी अभिलाषा विश्वविद्यालय के बड़े बाबू की मदद से पूरी हो गयी।सौदा सस्ता न था।अब उनका मन बढ़ गया।वे नाम के आगे डॉक्टर लिखना चाहते थे।विश्वविद्यालय के बड़े बाबू से सौदा तय हुआ।पाँच लाख देने पर उन्हें चौथे साथ डॉक्टर की उपाधि मिल ही गयी।अब गोबर दास स्कूल के डायरेक्टर बन गए और उनका नेम प्लेट सोने की पालिश वाले प्लेट पर लिखा गया- डॉक्टर  जी दास। देखते-देखते वे शहर में प्रसिद्ध शिक्षाविद में गिने जाने लगे।

अब वे आधुनिक गुरु हैं।किसी को भी किसी तरह की डिग्री,प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती ,वह डॉक्टर जी दास के सम्पर्क में आता।उनके प्रमाणपत्र पर कई कुंवारी लड़कियों का विवाह हो चुका,कई बड़े-बड़े फर्मों में नौकरी करने लगे।अब उनके नाम का डंका बजता है।मास्टर अजबलाल कब के नौकरी से निकाले जा चुके हैं और वे ट्यूशन पढ़ाकर आजीविका चलाते हैं।आधुनिक गुरु की इस कथा के साथ प्रसंग समाप्त।

अब गुरु खोजने के मेरे स्वयं के अथक प्रयास का प्रसंग

सेवा निवृत्ति लेने के बाद साहित्य सेवा करने की इच्छा जागृत हुई।तब गुरु की तलाश में लगा। मुझे एक विख्यात सुनामधन्य डॉक्टर साहब मिले जो हिंदी विभाग में प्राध्यापक थे। उन्होंने कहा-आपको कवि के रूप में स्थापित कराकर सम्मानित करा दूंगा। मेरे बहुत सम्पर्क हैं। जैसी भी रचना हो अखबारों में भी छप जाया करेंगे। दाम सम्मान के हिसाब से तय कर लीजिए। किताबें भी छप जाएगी,रचनाओं का जुगाड़ भी हो जाएगा। मुझे संदेह हुआ कि बताने वाले में उनके बारे में प्रख्यात कहा था कि कुख्यात?

फिर एक साहित्यिक संस्था के अध्यक्ष जी मिले।उन्होंने संस्था से जुड़कर कवि सम्मेलनों में जाते रहने का लालच भी दिया।बोले-पढ़ने के लिए रचनाएँ आप को कवि सम्मेलनों के एक दिन पहले मिल जाया करेंगी।आप रट कर पाठ कर दें।मैंने कइयों को स्थापित करा दिया है। बस संस्था के नाम पर नगद चन्दा देते रहिए।पर अग्रज ने मना करवा दिया।बोले-अभी लिखते रहो।तुममें इतनी कूबत हो कि प्रकाशक, आयोजक और सम्मानकर्ता स्वयं आवें।पर अब तक न वह कूबत हुई न कोई सम्मानकर्ता ही आए।हाँ, एक प्रकाशक महोदय की कृपा जरूर हुई।इसलिए  गुरु की मेरी खोज जारी है।मैं अधीर होकर जल्दी से सम्मानित हो जाना चाहता हूँ।कोई गुरु नज़र में हों तो बताएं।

अब अन्त में घर के गुरु की चर्चा। मेरी धर्मपत्नी जी पेशे से खालिस शिक्षिका हैं।मुझे कक्षा का एक कमजोर,दुर्गुणों से भरे हुए विद्यार्थी के अलावा कुछ समझती ही नहीं।मैं भी थक कर अपने को सन्सार से सारे दुर्गुणों से युक्त,बेवकूफ विद्यार्थी समझने लगा हूँ।मेरी यह ईश्वरीय गुरु में गुरुकुल और आज के जमाने के गुरु दोनों के गुण विद्यमान हैं।इसलिए उनका विनम्र नमन करता हूँ।यदि ऐसा न करूं तो आप कल मिलेंगे तो हाथ और सिर की पट्टी के जख्मों के बारे में बताता फिरूँगा कि बाथरूम में पैर फिसलने से गिर गया था।बाकी आप स्वयं समझदार और अनुभवी पाठक हैं।

उपसंहार में यही कहूंगा कि आज के जमाने मे असली गुरु वह है जो पढ़ाए गुरुकुल की तरह और सेट कर दे आधुनिक गुरु की तरह।

Prashant Karan IPS, IPS Prashant Karan,
लेखक प्रशान्त करण सेवानिवृत IPS अधिकारी हैं।