आर्थिक उपनिवेश के दौर से गुजर रही है हिन्दी- प्रभाकर श्रोत्रिय

संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को शामिल करने वाले अपने देश में हिन्दी की कितनी इज्जत करते हैं। पढ़िए लेखक और संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय की समूह संपादक दीपक सेन से 16 मई 2010 मुलाकात के मुख्य भाग।

नई दिल्ली : वरिष्ठ लेखक और संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय का कहना है कि वर्तमान समय में हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग चिंता विषय है। ऐसा इसलिए बढ़ा है, क्योंकि देश आर्थिक उपनिवेश के दौर से गुजर रहा है।

साहित्य अकादेमी की पत्रिका समकालीन साहित्य के संपादक रहे प्रभाकर श्रोत्रिय ने बातचीत में कहा था, “सबसे बड़ा संकट यह है कि इस वक्त बाजार की भाषा देश में बोलचाल की हिन्दी और साहित्य की भाषा को प्रभावित कर रही है। इसकी वजह यह है कि भारत आर्थिक उपनिवेश के दौर से गुजर रहा है और बाजार की भाषा को ही मानक हिन्दी माना जा रहा है। इसका कारण यह है कि भारतीय भाषाओंं के साथ अंग्रेजी के शब्दों का अनुचित प्रयोग किया जा रहा है।”

भाषायी संस्कार अखबारों के जरिये

प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने बताया, “आमजन अपनी दैनिक बोलचाल की भाषा के जरिये और रचनाकार अपनी कृतियों के माध्यम से भाषा का विकास करते हैं। व्यक्ति में भाषायी संस्कार अखबारों के जरिये आते हैं और इस वक्त हिन्दी के समाचार पत्रों में सिर्फ फैशन के लिए ही अंग्रेजी शब्दों का बेवजह इस्तेमाल घातक हैं।”

उन्होंने कहा, “यह भी सच है कि किसी भी भाषा से स्वाभाविक तौर पर आने वाले शब्द दूसरी भाषा को समृद्ध करते हैं। जैसे अंग्रेजी से हिन्दी में रेल, सिग्नल, टेलीविजन, एसएमएस आदि कई शब्द आये। मगर इस वक्त जिस भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, वह भाषा को समृद्ध करने की बजाय हृास की ओर ले जा रही है।”

भाषा की आजादी सबसे पहले

उन्होंने कहा, “राजनीति, व्यवसाय, प्रशासन, न्यायतंत्र सहित किसी भी तंत्र की भाषा को निश्चित रूप से प्रभावित करती है और यह दुर्भाग्य है कि अंग्रेजी राजतंत्र की भाषा होने के कारण भारतीय भाषाओं को प्रभावित करती है।”

एक संस्मरण के जरिये वह बताते हैं, “आजादी के पहले किसी ने गणेशशंकर विद्यार्थी से पूछा था कि आप देश की आजादी और भाषा की स्वतंत्रता में पहले किसे चुुनना चाहेंगे? इस पर उनका जवाब था कि भाषा की आजादी सबसे पहले जरूरी है, क्योंकि भाषा आजाद हुई तो देश की स्वतंत्रता की डगर कठिन नहीं होगी।”

उन्होंने कहा, “भाषा की प्रतिष्ठा बेहद महत्वपूर्ण है। महात्मा गांधी ने गुजराती भाषी होने के होते हुए भी हिन्दी की वकालत की थी, ताकि देश को एक भाषा के माध्यम से जोड़ा जा सके। मगर आज के दौर में मातृभाषा के प्रति लोगों की संवेदना कम हुई है।”

हिन्दी के विनाश की दिशा में काम

प्रभाकर श्रोत्रिय प्रभाकर क्षोत्रिय जी ने कहा, “संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को मातृभाषा बनाए जाने को लेकर मुहिम चलाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि आपके देश में आपकी भाषा महत्व नहीं रखती तो बाहर उसके महत्व रखने या नहीं रखने का कोई खास असर नहीं पड़ता। विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे कार्यक्रमों में केवल प्रस्ताव पारित किए जाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर काम करने में हम बेहद ढीले हैं।”

उन्होंने कहा, “फिलहाल, जो धारा चल रही है, वह हिन्दी के विनाश की दिशा में काम कर रही है और हिन्दी सहित सभी क्षेत्रीय भाषायें बोलियों में बदल रही हैं। हालांकि, प्रांतीयता के जुनून के चलते क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति लोगों में लगाव है जबकि हिन्दी को निश्चित दायरे में समेट दिया गया है।”