इन शहरों में दिल खोलकर दी जाती हैं गाली, सुनने वाले को ऐतराज नहीं होता…..

इलाहाबाद: गाली देना और गाली सुनना ज्यादातर लोगों के लिए उतना ही सहज है, जैसे सांस लेना या दिल का धड़कना। कुछ लोग सोचते होंगे अमीर, महिलाएं, बच्चे, पढ़े लिखे, अफसर और प्रबुद्ध लोग गाली का आदान प्रदान कम करते होंगे। एकदम गलत, ये वर्ग औरों से ज्यादा गाली का आदान प्रदान करते हैं।

‘गाली’ का आदान प्रदान लड़ाई झगड़े में भी होता है और प्यार मुहब्बत में भी। बस अंदाज ए बयां का फर्क है। बनारस और इलाहाबाद को गालियों का गढ़ माना जाता है। कुछ करने को नहीं है और टाइम काटना है तब भी गालियां दी जाती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के शहरों में बत्ती गुल होने पर भी गाली दी जाती है।

बनारस और इलाहाबाद की गाली

बनारस, इलाहाबाद, आरा, पटना जैसे शहरों में होली पर निकलने वाली पत्र पत्रिकाओं में गालियों का बेहतरीन इस्तेमाल देखा जा सकता है। गालियां यदि प्यार मोहब्बत में दी जायें तो उनका क्या कहना। जब दोस्त मिलते हैं तब एक दूसरे को गरियाते हैl फिर अर्ध आलिंगन, गलबहियां या एक दूसरे को अंकवार में भर लेते हैं तो कितना मजा आता हैl एक प्रकार से कहा जाये तो इलाहाबाद जैसे शहरों में गाली Helping Verb के तौर पर इस्तेमाल की जाती है।

साहित्यकार काशीनाथ सिं​ह का उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ में बनारस की गालियों का बेहतरीन संग्रह मिल सकता है। काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास को साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए चुना गया था। शर्त यह थी कि गाली निकालना होगा, मगर उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया था। काशीनाथ सिंह का मानना था कि यह स्थान के रहन सहन का जीवंत वर्णन है। इस कारण इस उपन्यास को अकादेमी पुरस्कार नहीं मिला था।

गाली का अर्थ और इतिहास

जानकारों के अनुसार, गाली संस्कृत शब्द ‘गलि’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ आवाज़ है। एक वर्ग मानता है कि गाली प्राकृत भाषा के शब्द ‘गरिहा’ का अपभ्रंश है, जिसका मतलब धिक्कार होता है। सामान्यतः गाली में एक गाली देने वाला और दूसरा खाने वाला होता है। ‘गाली गलौज’ का मतलब दोनों एक दूसरे को गरिया रहे हैं। ‘गाली गुत्ता’ माने गाली का कार्यक्रम हिंसात्मक होने से है।

हिन्दुस्तान में गालियों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में गालियों का जिक्र नहीं है। अपशब्द का वर्णन जरूर है जैसे ‘पर पुरुष गामी’ या ‘पर स्त्री गामी’। गाली और अपशब्द में फर्क है। नालायक, बदतमीज, बेहूदा, बेवकूफ, चिकट, चिरकुट, लटूरी, झंडे लाल, झोलाछाप अपशब्द हैं और कमीना, हरामज़ादा गाली। अपशब्द पुल्लिंग है और गाली स्त्रीलिंग।

गाली का समाजशास्त्र

गालियों के पीछे एक समाज शास्त्र भी है। जो लोग कमजोर, महिलाऐं, दबे-कुचले, सताए, गरीब, जाति व्यवस्था के निचले पायदान वाले, शोषित, वंचित हैं ज्यादातर गालियां उन्हीं के नाम पर है। धन पशु जैसी गालियां Outliers हैं।

वक्त का तकाजा है कि हम नई-नई गालियां इजाद करें लेकिन शर्त ये कि इनके केंद्र में पुरुष हों जिससे कि आने वाले समय में पुरुषों की गालियां औरतों के बराबर हो जाएं। पुरुषों को केंद्रित कर पुरानी बहुत कम गालियां है।

इलाहाबाद और बनारस तो गालियों के गढ़ इसलिए है, क्योंकि सबसे उर्वर मस्तिष्क यहीं तो है थोक में यूनिवर्सिटी में। बनारस में और कुछ हद तक इलाहाबाद में सब एक दूसरे के गुरु हैं।

गाली के प्रकार

मोटे तौर पर गालियों को छह परिवारों में विभक्त कर सकते हैं…..
  1. सगे-सम्बन्धियों से लेकर यौन-सम्बन्ध तक। इसमें ज्यादातर महिलाओं को केंद्र में रखकर गढ़ी गई हैं, जो हमारे पुरुष प्रधान और Misogynistic मानसिकता का द्योतक है। इन गालियों के बारे में ज्यादा बताने कि जरूरत नहीं है। ज्यादातर लोगों ने इसके प्रयोग में ‘पीएचडी’ कर रखी है।
  2. शरीर के अंग-विशेष को केन्द्रित कर दी जानी वाली गालियाँ। इस प्रकार की गालियों में Gender balance ज्यादा है। इनमें भी अधिकतर लोग ‘डी लिट्ट’ हैं।
  3. जानवरों को सामने रखकर दी जाने वाली गालियां। गधा, कुत्ता, उल्लू, सूअर, बन्दर, चमगादड़, बैल, भैंस, बकरी, सांड, और ना जाने कितनी। इसमें कौन सी बड़ी गाली है, उल्लू या गधा इस बारे में सुनने वाला तय करता है।
  4. जाति या नस्ल के नाम पर दी जाने वाली गालियां। यह भी स्पष्ट हैं कुछ खास कहने कि आवश्यकता नहीं है।
  5. miscellaneous गालियां मल मूत्र, संख्या,पेशे आदि से संबंधित हैं।
  6. भारत में हर शहर में अलग अलग तरह की स्नेहिल गाली प्रचलन में है।

गाली में स्नेह

इलाहाबाद में ‘ससुर के नाती’- आप जिसको गाली दे रहे है वो आप के ही चश्म ए चिराग है। (मन का तो कह रहा है कि कहूं लतियाइए पर कहूंगा नहीं। चाइल्ड राइट्स वाले केस कर देंगे)। आपकी औलाद नालायक है तो इसमें अपने ससुर को क्यों घसीट रहे हैं।

बनारस में ‘लकबकझक’- बेमतलब की बात करने पर दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय है। इसका प्रयोग तीसरा दोस्त भी करता है।

कानपुर में ‘ठाड़ें रहो कलक्टरगंज’- इसका मतलब मैं नहीं समझ पाया जिसकी समझ में आये तो कमेंंट में जरूर बताइयेगा।

अक्सर दी जाने वाली गालियां

कुछ और गालियां बहुत प्रचलित है- ‘बहुत हुआ सम्मान तुम्हारी मां का ../ चलो खिलाओ पान तुम्हारी मां का ..।’ कुछ नई गालियां मैं suggest करूंगा जो गाली न होते हुऐ भी सुनने वाले को गाली लगेंगी… ‘अबे फटे लंगोट’ (Character ढीला)/ ‘तेरे बाप का मुठ्ठीगंज’ / ‘तेरे बाप का गुल गपाढा’ / ‘तेरे चचा का तुलसी जर्दा’ / ‘तेरे दोस्त का ढीला नाड़ा’ / ‘तेरे बेटुआ की डेलीगेसी’ और सबसे मजेदार गाली ‘लऊं का पुत्ता।’

पुराने जमाने में मां बाप के तरफ के रिश्तों – चाचा, भतीजा, बाबा, आजी, मामा, नाना आदि को बहुत आदर मिलता था। लेकिन बीबी के तरफ के रिश्तों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए उनको गाली के रूप में भी प्रयोग किया जाता है – ससुर, साला आदि। इसके मूल में महिलाओं के प्रति असमानता का भाव ही था।

गाली और साढू

एक रिश्ता जिसको सबसे रद्दी और घटिया माना जाता था वो था साढू का। यह कथा उतनी ही पुरानी है जितनी लीलावती, कलावती और काशी के निर्धन ब्राह्मण की।

एक साढू दूसरे के घर बिना किसी संदेशे के जा पहुंचा। उसे देखते है होस्टेस (सढूआईन) के मन में क्या भाव आया।

साढू के घर साढू गईलन जैसे डहरी क कुत्ता
साढू देख सढूआइन बोली अईलन लड़ऊं क पुत्ता।

वैसे आजकल साढू साढू चोर चोर मौसेरे भाई की तरह काफी करीब होते हैं। आज कल चाचा, भाई भतीजा गए तेल लेने। साले,साडू और सरहज बुलंदी पर है।

शादी और ‘गारी’ की परंपरा

बरीक्षा, तिलक, शादी विवाह के मौके पर गाली के गीत जाने कि बहुत पुरानी परंपरा है। इसे बहुत शुभ माना जाता है। खूब भयंकर गालियां गीत में पिरोकर दी जाती है। सुनने और सुनाने वाले दोनों आनंदित होते हैं।

भगवान राम और सीता के विवाह के समय मिथिला की औरतों ने रघुकुल और वशिष्ठ-विश्वामित्र कि गरिया गरिया के खूब रैगिंग की। आइये पढ़ते है मिथिलांचल का पारंपरिक स्नेह सिंचित गारी गीत—-

“राम जी से पूछे जनकपुर के नारी बता दा बबुआ
लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ।

इ बूढ़ा बाबा के पकल पकल दाढ़ी
देखन में पातर, खाये भर थारी
बता दा बबुआ
लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ।

राजा दशरथ जी कइलन होशियारी
एकता मरद पर तीन तीन गो नारी
बता दा बबुआ
लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ।

कहेलिन सनेह लता मन में बिचारिन
हम सब लगैछी पाहून सर्वो खुशहाली
बता दा बबुआ
लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ।

तोहरा से पुछु मैं औ धनुषधारी
एक भाई गोर अउर एक काहे कारी
बता दा बबुआ
लोगवा देत कहे गारी, बता दा बबुआ।”

ठेठ इलाहाबादी में कहें तो ‘गरीयाईए और केहू गरियावे त सुनिए, समरस में मस्त में रहिए और मेहनत जारी रखिए।’ जो मन का हो अच्छा, जो ना हो और अच्छा, क्योंकि वह प्रभु राम की इच्छा है। और प्रभु ने अपने हर बच्चे के लिए कुछ अच्छा ही सोच रखा होगा।

दीपक सेन
दीपक सेन
मुख्य संपादक