राजेन्द्र यादव के जाने से साहित्य जगत में रोचकता कम हुई

न्यूज़ डेस्क
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नई दिल्ली: राजेन्द्र यादव के जाने से साहित्य जगत में रोचकता कम हो गयी और प्रेमचंद एवं उनकी साझा विरासत हंस का क्या होगा? हिन्दी साहित्य में नयी कहानी आंदोलन की त्रयी में शामिल चितपरिचित रचनाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव के जाने के बाद साहित्य जगत से कुछ तरह की प्रतिक्रिया आयी थी।

‘हंस’ दिल्ली से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की कथा मासिक पत्रिका है जिसका सम्पादन राजेन्द्र यादव ने 1986 से 2013 तक किया। साहित्यकार राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था और उनका निधन 28 अक्टूबर 2013 को दिल्ली में हुआ था।

नामचीन समालोचक नामवर सिंह ने कहा था, “प्रेमचंद के हंस को निकालने की जिम्मेदारी लेकर राजेन्द्र जी ने साहित्य जगत के लिए बहुुत बड़ा काम किया। यदि उन्होंने इसके अलावा कुछ भी न किया होता तो भी वह साहित्य जगत में अमर हो जाते।…अब यह जिम्मेदारी हमारी है कि साहित्य की इस विरासत को किस तरह संभाला जाये।”

नामवर जी कहते हैं, “राजेन्द्र जी से मेरे करीब 60 साल पुराने रिश्ते थे। राजेन्द्र यादव ने हंस का सांस्कृतिक हथियार के रुप में इस्तेमाल किया और ज्वलंत समस्याओं के बारे में लिखा। उनके जाने के बाद हंस का क्या होगा, इसके बारे में हमें सोचना होगा, क्योंकि हिन्दी साहित्य में ‘कौओं की भीड़’ है।”

साहित्य अकादमी के तत्कालीन उप सचिव ब्रजेन्द्र यादव ने कहा, “राजेन्द्र यादव के जाने से साहित्य की की दुनिया वीरान हो गयी और उसकी जीवंतता एवं रोचकता कम हो गयी। चर्चा में रहने वाले उनके विषय ‘स्त्री विमर्श’ और ‘दलित विमर्श’ से संबंधित लेखों का अभाव खलता रहेगा।”

लेखक रवीन्द्र कालिया कहते हैं, “मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव की तुलना करने का कोई वक्त सही नहीं है। मगर यह नयी कहानी की तिकड़ी थी जिसके प्रयासों से उपेक्षित साहित्यिक विधा कहानी को केंद्रीय पटल पर लाया जा सका। राजेन्द्र यादव नयी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं जिनके प्रयासों ‘स्त्री विमर्श’ और ‘दलित विमर्श’ सशक्त रूप से सामने आये। इससे पहले विमर्श पिछड़ रहा था।”

कालिया जी बताते हैं, “राजेन्द्र यादव ने अपनी नयी टीम तैयार की और उदय प्रकाश एवं अखिलेश जैसे कई युवा लेखक उनके प्रयासों से सामने आये। वे हिन्दी साहित्य की यमुना के कृष्ण थे और यह इत्तेफाक है कि उनका जन्म और कर्मभूमि यमुना के किनारे हैं।”

मुझे कई दफा उनसे मिलने का मौका मिला और प्रेमचंद की जयंती पर होने वाले समारोह में वह स्वयं फोन करके बुलाते थे या कहीं मिलने पर महीने भर पहले ही उस कार्यक्रम में आने की बात कह देते थे।

लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं, “राजेन्द्र यादव नयी कहानी आंदोलन के बाद से ही चर्चा में रहे, क्योंकि उनकी साहित्यिक सक्रियता जिंदगी भर बनी रही। ‘हंस’ के जरिये राजेन्द्र जी ने ‘स्त्री विमर्श’ और ‘दलित विमर्श’ को साहित्य की मुख्यधारा में महत्वपूर्ण काम किया। साहित्य के अतिरिक्त राजनीति और देश की ज्वलंत वैचारिक बहस बहसों में भी हस्तक्षेप किया।”

वह कहते हैं, “उनके दो टूक बयान कई बार विवादों का विषय बने, लेकिन राजेन्द्र जी ने अपनी पराजय स्वीकार नहीं की। वह एक सूरमा की तरह साहित्य के मोर्चे पर लड़ते रहे।”
लेखिका निर्मला जैन कहती है, “राजेन्द्र यादव से मतभेद रखकर भी लोग उनसे अलग नहीं हो सकते थे। मैंने उन्हें जीवट इंसान के तौर पर देखा है, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी कमजोर नहीं पड़ते थे। वे साहित्यिक और वैचारिक बहस को बहस को मन में नहीं रखते थे, लेकिन अपनी बात को बड़े बेबाक तरीके से कहते थे। नये रचनाकारों के प्रति सकारात्मक रवैया रखते थे। इस वक्त कई ऐसे रचनाकार हैं, जिन्हें निखारने का श्रेय राजेन्द्र जी को जाता है।”

राजकमल प्रकाशन के प्रमुख अशोक माहेश्वरी ने कहा था, “राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के फलक पर सामाजिक सरोकारों से संबंध रखने वाले व्यक्ति थे। साहित्य में महिला और दलित से जुड़े मसले उनके कारण ही बड़े मुद्दे बने।”

उन्होंने कहा, “राजेन्द्र यादव लोकतांत्रिक तरीका अपनाने वाले और सकारात्मक रवैया रखने वाले व्यक्ति थे। वह बड़ी विस्तृत सोच और जनसंपर्क रखने वाले लोगों में शामिल थे।”

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