नई दिल्ली: वरिष्ठ साहित्यकार रवीन्द्र कालिया कहा करते थे कि वर्तमान साहित्य को सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में बदलते रिश्तों को समझने की। और उसी के अनुरूप शब्द संसार गढ़ने की जरूरत है। वर्तमान समय में समाज आगे चल रहा है और साहित्य पीछे चल रहा है।
हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर रवीन्द्र कालिया ने कहा था, “मुझे लगता है कि प्रेमचंद का कथन ‘साहित्य समाज से आगे चलता है।’ अब बदल गया है। इस समय समाज की सोच साहित्य से आगे निकल गयी है। और साहित्य उसका पीछा कर रहा है। कन्या भ्रूण हत्या और दहेज हत्या जैसी सामाजिक मुद्दों पर बहुत कम लिखा जा रहा है। साहित्य अपने वक्त की बदलती तस्वीर पेश नहीं कर रहा है।”
युवा पीढ़ी बेहतर और पुरस्कार
कालिया ने कहा, “बदलते भारत की तस्वीर को युवा पीढ़ी के रचनाकार बखूबी पकड़ रहे हैं। और सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में बदलते रिश्तों की परिभाषा को पकड़ने में युवा लेखक नामचीन लेखकों की तुलना में ज्यादा बेहतर हैं।”
कालिया ने कहा, “मेरा शुरू से मानना रहा है कि पुरस्कारों को पारदर्शी होना चाहिए। मैं तो कहता हूं कि निर्णायक समिति की बैठक की वीडियो रिकार्डिंग की जानी चाहिए। इसे लोगों को दिखाना चाहिए। कृष्ण बलदेव वैद के साहित्य को कुछ लोगों ने अश्लील कह दिया। इसलिए उन्हें शलाका सम्मान नहीं दिया गया। हालांकि, निर्णायक मंडल ने उनके नाम पर सहमति जताई थी। ऐसे में वैद साहब को पुरस्कार नहीं दिया जाना साफ तौर पर एक सुलझे हुए लेखक के रचनाकर्म का अपमान है।”
साहित्य अकादेमी पर सवाल
कालिया ने कहा, “मंटो विश्व के अहम लेखकों में से हैं। और उन पर जिंदगी भर मुकदमे चलते रहे। सतही नजर से देखने में मंटो अश्लील लग सकते हैं। लेकिन गहराई से देखा जाये तो वह मानवीय आचरण के अध्येता हैं। साहित्य अकादेमी द्वारा तमाम विरोध के बाद भी ‘द्रोपदी’ को पुरस्कार देना सराहनीय है। मगर नेहरू के सपनों की साहित्य अकादेमी अब नजर नहीं आती है।”
अखबार अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे
कालिया कहते हैं, “ऐसा सोचना गलत है कि साहित्य में पाठकों की कोई रूचि नहीं है। अखबारों के पाठक साहित्य के बारे में पढ़ना चाहते हैं। साहित्य को दरकिनार कर अखबार खुद अपना ही नुकसान कर रहे हैं। समाचार पत्र अपने पाठकों का मनोरंजन तो कर रहे हैं। मगर पाठक को शिक्षित करना भी उनकी अहम जिम्मेदारी है। इसे वे ठीक तरह से नहीं निभा रहे हैं।”
उन्होंने कहा, “साहित्य और संस्कृति की पत्रिकाओं के बंद होने का कारण अखबारी मानसिकता है। जिन स्तंभो के कारण धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और रविवार जैसी पत्रिकाएं बिकती थी। उन्हें अखबारों ने अपना लिया। इसके कारण इन पत्रिकाओं को बंद कर दिया गया।”
कालिया बताते हैं, “मैं मुंबई, कोलकाता, नयी दिल्ली और इलाहाबाद में रह चुका हूं। राष्ट्रीय राजधानी मुझे आर्थिक राजधानी और सांस्कृतिक राजधानी के सामने बौनी लगती है। मैं मानता हूं कि दिल्ली साहित्य की मंडी है। और इलाहाबाद साहित्य का शहर है।”
‘धर्मयुग‘ में सह संपादक से ‘नया ज्ञानोदय‘ के संपादक तक का सफर तय करने वाले रवीन्द्र कालिया जी से मेरे बहुत पुराने रिश्ते थे। मैं दावे से कह सकता हूं कि अब तक उनसे बेहतर ‘साहित्य पत्रकार’ भारत में नहीं हुआ है।
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