आजादी के बाद हिन्दी और उर्दू में बढ़ी नज़दीकियां- इंतज़ार हुसैन

पाकिस्तान के उर्दू के नामचीन लेखक इंतज़ार हुसैन से समूह संपादक दीपक सेन के साथ 9 सितंबर 2009 का अलहदा साक्षात्कार।

नई दिल्ली: बंटवारे के बाद भले ही भारत और पाकिस्तान के बीच बेग़ानियत में इज़ाफा हो गया हो। लेकिन इस दौर में दक्षिण एशिया की दो प्रमुख जबानें हिंदी और उर्दू एक दूसरे के करीब आईं हैं।
पाकिस्तानी अफ़सानानिगार इंतज़ार हुसैन के मुताबिक, दोनों देशों के बीच सियासी तौर पर दूरियां रही हो। लेकिन दोनों भाषाओं की नज़दीकियां बढ़ी हैं। इस दरम्यान बड़ी संख्या में हिन्दी रचनाओं का उर्दू में तर्ज़ुमा हुआ है।

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के सितारे

पाकिस्तान के नामचीन अफ़सानानिगार इंतज़ार हुसैन ने साहित्य अकादेमी द्वारा आरंभ की गयी प्रेमचंद फैलोशिप पाने वाले अदब के पहले शाहकार हैं। इसी सिलसिले में वह दिल्ली आये हुए थे। वह कहते हैं, “प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू अदब में एक सितारे की हैसियत रखते हैं, जहां दोनों जबानें गले मिलती है। प्रेमचंद उर्दू लघुकथा के पितामह हैं।”

इंतज़ार हुसैन ने खास मुलाकात में बताया, “उर्दू के फिक्शन को मग़रिब (पश्चिम) की दास्तानों, अरब की दास्तानों और हिन्दुस्तान के क्लासिक दास्तानों ने प्रभावित किया है। ‘बेताल पच्चीसी’, ‘महाभारत’, ‘जातक कथाओं’ और ‘पंचतंत्र’ का उर्दू में तर्ज़ुमा हुआ है। और इसका असर दिखाई भी देता है।”

पंजाब और उत्तर प्रदेश ने झेला बंटवारा

हुसैन साहब ने बताया, “जिस प्रकार हिन्दुस्तान में मंटो, कृष्नचंदर, फैज़ और ज़मील हाशमी जैसे उर्दू अदब के बड़े शाहकार को पढ़ा जाता है। उसी तरह पाकिस्तान में भी प्रेमचंद और निर्मल वर्मा जैसे तमाम बड़े नामों के उर्दू तर्जुमें को पढ़ा जाता है।”

उन्होंने कहा, “दोनों तरफ के पंजाब और हिन्दुस्तान में उत्तर प्रदेश के लोगों ने बंटवारे की आग को सबसे अधिक झेला। और यही वजह है कि इन इलाकों के अदबनवीसों के अदब में बंटवारे की आंच महसूस की जा सकती है।”

पाकिस्तान में सियासत पर अधिक लिखा

इंतज़ार हुसैन साहब कहते हैं, “हिन्दुस्तान के मुकाबले पाकिस्तान के हालात आजादी के बाद से ही उथल पुथल से भरा रहा हैं। इसके चलते हिन्दुस्तान के मुकाबले पाकिस्तान का उर्दू अदब सियासत के मसाइल के बारे में ज्यादा लिखता रहा है।”

उन्होंने बताया, “उर्दू में फिक्शन को वह मकाम हासिल नहीं हो सका जो हिन्दी में हासिल हुआ है। जैसे अरेबियन नाइट्स, अलिफ लैला जब मग़रिब में ख्यात हो गयी तब उसे उर्दू अदब में अपनाया गया।”

इलाकाई ज़बानों में बंटवारे पर नहीं लिखा

इंतज़ार हुसैन साहब बताते हैं, “पाकिस्तान की इलाकाई ज़बानों पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो में बुल्लेशाह, वारिज शाह और अहमद राही जैसे बड़े नाम हुए हैं। मगर इन ज़बानों में बंटवारे के बारे में काफी नहीं लिखा गया।”

उन्होंने बताया, “प्रेमचंद से पहले उर्दू अदब में आम तौर पर शहरी जिंदगी को ही तवज्जो दी गयी है। लेकिन प्रेमचंद पहले अफ़सानानिगार थे जो गांव की ज़िंदगी उर्दू अफसाने में लेकर आये।”

पश्चिम में एशिया के अंग्रेजी साहित्य का जिक्र

हुसैन साहब फरमाते हैं, “मग़रिब दक्षिण एशियाई मुल्कों में अंग्रेजी में लिखे जा रहे साहित्य को तीसरी दुनिया का लिटरेचर बताते हैं। ये मुल्क हमारे यहां तमाम ज़बानों में लिखे जा रहे अदबी काम का जिक्र भी नहीं करते।”

जनाब इंतज़ार हुसैन ने कहा, “टैगोर की गीतांजली के तर्ज़ुमें को नोबेल प्राइज मिला था। मगर आज के अदब के साथ ऐसा नहीं हो रहा है। टैगोर को डब्ल्यू जी गेट्स जैसे लोग और कद्रदान मग़रिब में मिल गये थे। जिन्होंने गीताजंली का अंग्रेजी में तर्ज़ुमा किया। इस कारण उनको दुनिया में वह मकाम हासिल हो सका जो औरों को नहीं मिल पाया।”

घर की कद्र छोड़ने के बाद आयी

इंतज़ार हुसैन साहब बंटवारे में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से पाकिस्तान गये थे। इसे याद करते हुए वह कहते है, “घर छोड़ने के बाद ही उसकी कद्र समझ में आती है। कई दशकों के बाद अपने गांव घर की मिट्टी छूने की हसरत लिए वे पाकिस्तान से ठानकर चले थे कि किसी से पता नहीं पूछेंगे। और पुरानी यादों के सहारे खुद ही वहां तक पहुंच जायेंगे। लेकिन वक्त ने सब कुछ इतना बदल दिया है। मैं बुलंदशहर के करीब स्थित अपने गांव डिबाई में वह जगह नहीं ढूंढ़ पाया। जहां कभी मेरा घर हुआ करता था।”

“हिन्दुस्तान से आखिरी खत”, “शहर ए अफसोस” और “वो जो खो गया” के अदबनवीस हुसैन को उर्दू में अपने अलहदा अंदाज के लिए जाना जाता है। वह कहते है, “मेरी कहानियों से हिन्दुस्तान की खुश्बू आती है, क्योंकि मेरा बचपन और जवानी यहीं गुजरे जिसके नक्श मेरे दिलो दिमाग पर आज भी दर्ज हैं।”

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