पटनाः सुशांत सिंह राजपूत मामले में रिपब्लिक और टाइम्स नाऊ टी.वी चैनलों ने अब तक जो रहस्योद्घाटन किए हैं,उनसे यह साफ है कि किसी बड़ी हस्ती को बचाने की महाराष्ट्र सरकार-पूरी कोशिश कर रही है। पर इसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं। आजादी के तत्काल बाद से ही प्रभावशाली सत्ताधारियों को बचाने की सफल कोशिश होती ही रही है।
महाजनो येन गतः स पंथाः
बचाने के कुछ ही नमूने यहां पेश हैं। जिस तरह पकते चावल के कुछ ही दाने से ही स्थिति का पता चल जाता है।
पचास का दशक
एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उच्चस्तरीय प्रयास से उस आरोपी को जमानत दिला कर विदेश भेज दिया था।
साठ का दशक
प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में रहस्यमय परिस्थिति में 1966 में मौत हो गई। उनका न तो पोस्टमार्टम कराया गया और न ही कोई जांच। संबंधित कागजात-सबूत भी गायब हो गए। आज भी अनेक लोग उस मौत के रहस्य को लेकर यदा कदा तरह -तरह की बातें करते रहते हैं।
सत्तर का दशक
केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायाण मिश्र की 1975 में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर हत्या कर दी गई। बिहार पुलिस के कत्र्तव्यनिष्ठ एस.पी.डी.पी.ओझा ने असली हत्यारे को पकड़कर दफा 164 में स्वीकारोक्ति बयान भी करवा दिया। पर अचानक सी.बी.आई. के निदेशक ने बिहार पहुंच कर सारा कुछ उलट दिया। ललित बाबू के भाई डा.जगन्नाथ मिश्र और पुत्र विजय कुमार मिश्र ने कहा कि जिन लोगों को इस केस में सजा दिलवाई गई,उनसे ललित बाबू को कोई दुश्मनी नहीं थी। उनके एक परिजन ने तो मुझसे यह भी कहा था कि एक अत्यंत बड़ी हस्ती ने ललित बाबू को हत्या करवा दी ।
अस्सी का दशक
1983 में चर्चित बाॅबी हत्या कांड पटना में भी यही हुआ। असली गुनहगार को बचा लिया गया।उच्चस्तरीय दबाव में सी.बी.आई.ने हत्या के मामले को आत्म हत्या में बदल दिया गया। बाद के दशकों यानी राजनीति के कलियुग के बारे में कम कहना और अधिक समझना।
काश ! पचास के दशक वाले हत्या कांड में गुनहगार को सजा मिलने की शुरूआत हो गई होती तो आज सुशांत मामले में गुनहगारों को बचाने के लिए जो बेशर्मी दिखाई जा रही है,उसकी हिम्मत किसी को नहीं होती।
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार…