UPSC टॉपर्स और विश्व सुंदरियों में क्या है समानता, बता रही है बागी की कलम

पटनाः अगर यह पूछा जाये की यूपीएससी टॉपरों (UPSC Toppers) और विश्व सुंदरियों में क्या समानता है, तो शायद पूछने वाले को पागल ठहरा दिया जाये। लेकिन सच मानिये उनमें एक गजब की समानता है। वह यह कि इंटरव्यू राउंड में दोनों खूब आदर्श की, मीठी -मीठी और अच्छी लगने वाली  बातें करते हैं। दुनिया को बदलने की, समाज सेवा की, मजलूमों की मदद करने की बातें करते हैं। लेकिन चयनित होने के बाद सब कुछ भूल, समाज की उसी घिसी-पिटी रवायत का हिस्सा बन जाते जिसे कोसते हुए कभी तालियां बटोरी थी।

UPSC द्वारा चुने गए कुछ होनहार युवा तो आगे चल कर पैसा कमाने की मशीन बन जाते हैं। आये दिन केंद्रीय सेवा के अधिकारियों के आलीशान बंगलों पर पड़ते छापे और वहां से मिलते खजाने उनकी आदर्शवादिता की पोल खोलते रहते हैं। करीब 700 से 800 अधिकारी हर वर्ष यूपीएससी से चुने जाते हैं। टॉपरों की तस्वीरें, उनके इंटरव्यू अखबारों की सुर्खियां बनते हैं। टीवी पर छाए रहते हैं। उनके परिजनों के साथ -साथ गांव -जवार के लोग भी खुश होते हैं। स्वाभाविक भी है। होना ही चाहिए।सफलताएं, दुनिया को आकर्षित ही नहीं करती, प्रेरित भी करती हैं। इसलिए सफलता पर तालियां बजनी ही चाहिए।

चंद अधिकारियों की बदौलत बची है इस प्रतिष्ठित सेवा की प्रतिष्ठा

लेकिन समय गुजरने के बाद कितने IAS/IPS अधिकारी नौकरी में आने के समय कही गई बातों को याद रखते हैं? अपने काम की बदौलत कितने अधिकारी अपनी पहचान बना पाते हैं? सच तो यह है की चंद अधिकारियों की बदौलत ही इस प्रतिष्ठित सेवा की प्रतिष्ठा बची है। अगर सारे अधिकारी इंटरव्यू के समय कही बातों को याद रखते तो पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती को यह कहने की नौबत नहीं आती की नौकरशाही कुछ नहीं है वह  तो हमारी जूते उठानेवाली है।

पिछड़े प्रदेशों में गिना जाता है IAS/IPS देने वाला बिहार

बिहार को IAS/IPS देने वाला प्रदेश माना जाता है। फिर भी बिहार पिछड़े प्रदेशों में गिना जाता है। आखिर इतनी संख्या में बिहारी मूल के नौकरशाहों के होने के बावजूद बिहार की स्थिति पिछड़े प्रदेश की क्यों है? हर क्षेत्र में सुविधाओं का घोर अभाव है। इसका पता इससे भी चलता है की यूपीएससी कंपीट करने के लिए युवाओं को  बाहर जाना पड़ता है। मगर एक बार चुन लिए जाने के बाद वे सारे कष्ट भूल जाते हैं और गंगा स्नान करने लगते हैं। बदलाव का जज्बा मंद हो जाता है।

निकल जाता है आदर्शवादी दावों का दम

ठीक यही स्थिति मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस एशिया पैसिफिक, मिस इंडिया वगैरह प्रतियोगिताओं में चुनी जाने वाली सुंदरियों की है। जैसे  सिविल सेवा के इंटरव्यू में पहुंचे छात्र साक्षात्कार बोर्ड के सामने अपना प्रमुख उद्देश्य समाज को बदलना और उसकी सेवा करना बताते हैं, वैसे ही सौंदर्य प्रतियोगिताओं के फाइनल में पहुंचने वाली सुंदरियों का एक ही जवाब होता है- मां की तरह दयालु बनना, समाज की सेवा करना, मदर टेरेसा से प्रभावित होना आदि-आदि। लेकिन हकीकत क्या है? कितनी सुंदरियां ऐसा कर पाती हैं? ज्यादातर फिल्मों के जरिये अकूत कमाई में व्यस्त हो जाती हैं। कार्यक्षेत्र में आदर्शवादी दावों का दम निकल जाता है।

जिस तरह प्रतियोगिता जीतते ही सुंदरियां मदर टेरेसा को भूल जाती हैं, उसी तरह सिविल सेवा में चयन होने के बाद युवा अफसर उन बातों  को भूलने लगते हैं, जिनका बखान वे साक्षात्कार बोर्ड के सामने कर चुके होते हैं। यह उनके प्रशिक्षण का दोष है या कुछ और जिससे वे आदर्शों को छोड़ व्यवहारिक बन जाते हैं।

पीछे का कुछ भी याद नहीं रह जाता

कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो उनके अंदर वही आत्मा धीरे-धीरे समाहित होने लगती है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित उनकी पूर्वज इंडियन सिविल सेवा के अधिकारियों में थी।  इसके बाद अधिकारी बना शख्स उस समुदाय को भी भूलने लगता है, जो उनकी टॉपर गाथाओं को गा-गाकर खुद को गौरवान्वित अनुभव करता है।

अगर ऐसा नहीं होता तो समाज बदलने की उनकी प्रतिज्ञाएं समाज को पहले की तुलना में बेहतर बना चुकी होती, प्रशासनिक अधिकारियों के सामने जाने के लिए लोगों में हिचक नहीं होती। गरीब, बेसहारा और पीड़ित उन्हें अपना हितैषी मानते। बिहार में केबी सक्सेना, मनोज श्रीवास्तव, व्यास जी या फिर टीएन शेषण, महाराष्ट्र के तुकाराम मुंडे, अरुणाचल के आर्मस्ट्रांग पेम, पंजाब की रितु माहेश्वरी, अशोक खेमका, प्रदीप कासनी जैसे अनेक IAS उसी श्रेणी में आते हैं।

अपवाद हैं कुछ अधिकारी

IPS अफसरों में अजय कुमार, मनोज नाथ, आनंद शंकर, डीएन गौतम, शिवदीप लांडे, विकास वैभव, अरविंद वर्मा, संजुक्ता परिसर, श्रेष्ठा ठाकुर जैसे कई नाम हैं जो सम्मान से लिये जाते हैं। IPS अधिकारी रहे किशोर कुणाल तो आज भी एक मिसाल बने हुए हैं। सेवा में रहते जितनी ख्याति उन्होंने हासिल की उससे भी बड़ी मानवता की सेवा का काम वे अब कर रहे हैं। उनके नेतृत्व में पटना के महावीर मंदिर के चढ़ावे की राशि से अनेक अस्पताल चलाये जा रहे हैं, जहां बहुत कम दर पर इलाज होता है। महावीर कैंसर संस्थान में तो दूसरे प्रदेशों से भी मरीज आते हैं।

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यहां यह पूछा जा सकता है कि  साल-दर-साल संघ लोकसेवा आयोग (UPSC) या राज्य लोकसेवा आयोग अपने साक्षात्कार बोर्ड के सामने समाज बदलने का दावा करने वालों के झांसे में आ जाता है या समाज ही खुद बदलने से इनकार कर देता है ?

सरदार पटेल ने जताई थी ऐसी उम्मीद

संविधान सभा में अनुच्छेद 310 और 311 को लेकर हुई बहस को याद करना समीचीन होगा। पहले अनुच्छेद के तहत सिविल सेवकों के अधिकार तय किए गए हैं, तो दूसरे के तहत उन्हें चुनने वाली लोक सेवा आयोग का। बहस में संविधान सभा के कई सदस्यों ने आशंका जताई थी कि सिविल सेवकों को गांधी जी के सपनों के मुताबिक लोक सेवक बनाने के लिए संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। क्योंकि वे भी अंग्रेज अधिकारियों जैसा तानाशाही रुख अपनाएंगे, उनके अंदर भी सामंती बोध बढ़ेगा। तब सरदार पटेल ने संविधान सभा के सदस्यों की उस आशंका को खारिज किया था। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि स्वाधीन भारत में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपनी लोक भूमिका को समझेंगे। वे जीवन और स्वाधीन भारत के मूल्यों को समझेंगे।

सरदार  पटेल ने उन्हें संवैधानिक संरक्षण देने की वकालत करते हुए तर्क दिया था कि चूंकि मौजूदा राजनीतिक पीढ़ी स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों से विकसित हुई है, इसलिए वह अपनी जिम्मेदारी समझती है।  अगर भावी राजनीतिक पीढ़ी भ्रष्ट हुई तो वह नौकरशाही को तंग करेगी, लेकिन आज तो दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो गए लगते हैं।

कल्पना कीजिये आज अगर सरदार पटेल होते तो क्या करते? अब समय आ गया है जब देश में नौकरशाही के रोल को फिर से परिभाषित किया जाए। उन्हें साहब या मालिक की भूमिका से लोक सेवक की भूमिका में लाया जाये। यह काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर सकते हैं। उन्हें करना चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी की कलम से।

 

 

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