कोरोना के नाम पर देश की अर्थव्यवस्था को बद से बदतर बनाने की तैयारी हो रही है। सिर्फ 80 लोगों में कोरोना के संक्रमण की पुष्टि के बाद जिस तरह से पूरे देश में आपातकाल जैसी स्थिति बन गई है, कहीं न कहीं देश के 140 करोड़ लोगो के जीवन यापन के साथ खिलवाड़ है। समूची सार्वजनिक व्यवस्था और समूहिकवाद को अस्त-व्यस्त कर हम आखिर इस दुनियावी फैशन और ख़ौफ़ के तले क्यों कुचले जा रहे है?
देश में लाखों लोग अलग-अलग ढंग से प्रकृति की तमाम अवस्थाओं तथा समाज और सिस्टम की अनेकानेक विरूपताओं से दो चार हो रहे है, उसका कहीं कोई जिक्र, सरोकार, विमर्श या वर्णन नहीं। सिर्फ एक नए ख़ौफ़ की पूरी मार्केटिंग हो रही है।
एक 70 साल का व्यक्ति उस कथित कोरोना से मर जाता है। उसकी हैडलाइन बन रही है, जबकि देश में लाखों लोग दुर्घटना से, तमाम तरह की घातक बीमारियों स, तंगी से, बे-हाली से, बेबसी से, अवसाद से मर रहे हैं उनकी खबर उस कोरोना के आतंक के सामने अपनी सुबक भी नहीं प्रदर्शित कर पा रही हैं।
कोरोना का आतंक जहां सचमुच तबाही मचा रहा है, मसलन इटली, ईरान और चीन में, वहाँ के प्रति हमारी हमदर्दी जरूर प्रदर्शित होनी चाहिए, लेकिन उसकी बदहवासी में हम अपना सारा चौपट क्यों किये जा रहे है। मोदी जी समूची दुनिया का सैर करते हैं। उनके लिए कोरोना जरूर ख़ौफ़नाक होगा, परन्तु भारत में जहा 95 फीसदी आबादी अपने समूचे जीवन में कभी विदेश नहीं गई, वे उस ख़ौफ़ के तले क्यों बुलडोज़ किये जा रहे है।
इसका असर उन पर नहीं पड़ेगा जिनकी माहवारी सुनिश्चित है, उनके लिए तो चाहे हड़ताल हो, बंदी हो, प्राकृतिक आपदा हो वे बिलकुल बेफिक्र हैं। परन्तु वे करोड़ो लोग जो रोज कमाते है तभी अपना बसर चला पाते हैं। उन पर बरप रहा क़हर कोरोना से कई करोड़ गुना बड़ा है।