लोकतंत्र में भारत की दुविधा: कासे कहूं पीर मोरे मन की…

सवाल कहां से पूछें…सवाल कैसे पूछे…सवाल किससे पूछे…इस वक्त देश के सामने सबसे बड़ी दुविधा यही है कि भारत का लोकतंत्र वर्तमान दौर में अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है। एक आपातकाल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में घोषित रूप से लगाया गया था। और इसके विरोध में भाजपा और तमाम राजनीतिक पार्टियों के नेता खड़े हो गये थे। इस वक्त तो बोलने वालों पर ईडी, आयकर एवं सीबीआई सहित तमाम एजेंसियों का छापा डाला जाता है। क्या यह इंदिरा गांधी के आपातकाल से अधिक जघन्य नहीं हैं?

इसके विपरीत इस समय चल रहे अघोषित आपातकाल में राजनीतिक पार्टियों की खरीद-फरोख्त, रईस लोगोंं को इलेक्शन बांड के बदले लाभ पहुंचाना, जनादेश के साथ खिलवाड़ खुलेआम चल रहा है। देश की स्वायत्त संस्थानों पर सरकार का कब्जा है। देश में मौजूद काबिल लोगोंं का उपयोग देश हित में करने की कोशिश ही नहीं की जाती है। और हम अमरिकी एवं यूरोपीय भारतवंशियों का महिमामंडन करने से थकते नहीं है।

2014 में विकास और रोजगार को लेकर बनी सरकार ने पिछले 9 साल में देश को किस हाल में ला खड़ा किया है यह किसी से छिपा नहीं है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट से शुरू हुआ सिलसिला बीबीसी के दफ्तर होते हुए शिवसेना तक पहुंच गया। क्या हम लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात करने आजादी में समाचारों के इंडेक्स में 150 पायदान अंतिम पायदान यानी 180 पर पहुंचकर ही दम लेंगे?

देश के 80 फीसदी नागरिक बेरोजगारी, महंगाई और घूसखोरी से परेशान है। 20 फीसदी सत्ता के चाटुकार मौज-मस्ती कर रहे हैं। एक आम भारतीय नागरिक की सुनने वाला कोई नहीं है। वोट खरीदना मानों एक प्रचलन बन गया है।

आरटीआई को कमजोर करना, किसान विरोधी कानून, राफेल की खरीद, बुलेट ट्रेन, नोटबंदी, स्टार्टअप इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, कोरोना के खिलाफ कदम उठाने में देरी, नमामि गंगे, कोरोना टीकाकरण और मीडिया पर कब्जा जैसे कदम भ्रष्टाचार नहीं तो क्या हैं?…..और हां, देश को साम्प्रदायिकता की आग में झौंक देना कितना सही है?

ब्रिटिश पार्लियामेंट और अमेरिकी पार्लियामेंट में मोदी सरकार की आलोचना किसी व्यक्ति की आलोचना नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की गिरती साख का संकेत और हर भारतीय नागरिक के प्रधानमंत्री की आलोचना है।

दीपक सेन
दीपक सेन
मुख्य संपादक