पढ़िए- इतिहास बयां करते इलाहाबाद के पुराने मोहल्लों के दिलचस्प किस्से

न्यूज़ डेस्क
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इलाहाबाद: एक रूसी दार्शनिक सोरोवस्की का विचार है कि यदि किसी नगर, स्थान या क्षेत्र का इतिहास जानना हो तो पहले उसके नाम का इतिहास जानें, क्योंकि नाम उसकी ऐतिहासिकता का प्रतीक होता है। इलाहाबाद या प्रयागराज शहर के पुराने मोहल्लों का नामकरण कैसे हुआ, इस पर गौर करें तो यह बात पूरी तरह सही साबित होती है, क्योंकि ये नाम इतिहास बयान करते हैं। इलाहाबाद लंबे समय तक मुगलों और अंग्रेजों की हुकूमत में रहा। यहां के पुराने मोहल्ले में से कुछ मुगलों के बसाए हैं तो कुछ अंग्रेजों ने। इनकी तह में जाएं तो अतीत की कई अनछुई दास्तानें परत दर परत खुलती हैं। सौ बरस पहले भीड़भाड़ वाला चौक का इलाका एक साधारण गांव जैसा था। यहां मुगलों के समय की बनीं दो सराएं थीं, खुल्दाबाद सराय और गढ़ी सराय।

शहर के सबसे खास कारोबारी इलाकों में शुमार मुट्ठीगंज का नाम अंग्रेजी हुकूमत के पहले कलेक्टर मिस्टर आर. अहमुटी के नाम पर पड़ा, जबकि शहर की पहचान माने जाने वाले पंडों व प्रयागवालों के परंपरागत क्षेत्र कीडगंज का नाम किले के अंग्रेज कमांडेंट जनरल कीड के नाम पर पड़ा। मुगल शासक शाहजहां का बड़ा लड़का दारा शिकोह था, जिसके नाम पर दारागंज मोहल्ला आबाद हुआ।

इलाहाबाद का चौक मोहल्ला जहां फेंका जाता था कूड़ा-करकट

1906 के आसपास संयुक्त प्रांत के उपराज्यपाल मिस्टर जेम्स डिग्स लाटूश ने स्टेशन के आगे सरकारी कर्मचारियों के रहने के लिए एक मोहल्ला बसाया, जिसका नाम उन्होंने गवर्नमेंट प्रेस के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट मिस्टर एफ. लूकर के नाम पर लूकरगंज रखा। इलाहाबाद आर्कियोलॉजिकल सोसायटी के लिए हिंदुस्तानी एकेडमी से प्रकाशित प्रयाग प्रदीप में डॉ. सालिग्राम श्रीवास्तव ने चौक व इसके आसपास के इलाकों की तत्कालीन दशा पर लिखा, ‘जहां आज चौक मोहल्ला है, वहां चारों ओर कच्चे घर थे। कोई-कोई मकान पक्के और कुछ बिना प्लास्टर की पक्की ईंटों के बने थे। बीच में एक पक्की गड़ही थी, जिसमें आस-पास का पानी इकट्ठा होता था तथा कूड़ा-करकट फेंका जाता था। लोग उसे लाल डिग्गी कहते थे। उसके किनारे कुछ बिसाती, कुंजड़े और अन्य छोटे-छोटे दुकानदार चबूतरों पर बैठते थे। जांस्टनगंज घनी बस्ती थी। चौक से कटरा की ओर जाने के लिए ठठेरी बाजार, शाहगंज, लीडर रोड का रास्ता था।’

मशहूर तवायफ जानकी बाई इलाहाबादी उर्फ छप्पन छूरी की कोठी

1864 के आसपास जिले के कलेक्टर मि. विलियम जांस्टन ने चौक की पुरानी बस्ती की जगह नया बाजार व पक्की सड़क बनवाई थी, जिसे जांस्टनगंज कहा जाने लगा। चौक में जहां बरामदा के नाम से सौंदर्य प्रसाधन की दुकानें हैं, वहां पहले एक विशाल कुआं था। इसके ठीक सामने गिरजाघर के पास नीम के सात पेड़ों का समूह था, जिन पर अंग्रेजी पुलिस क्रांतिकारियों को फांसी देती थी और कुएं में दफन कर देती थी। 1873 में लाल डिग्गी की गड़ही को शहर के माने हुए रईस बाबू रामेश्वर राय चौधरी ने पटवाकर सब्जी मंडी बनवाई। बाबू साहब कचहरी के प्रसिद्ध गुमाश्ता थे। सब्जी मंडी के पास ही यहां की मशहूर तवायफ जानकी बाई इलाहाबादी उर्फ छप्पन छूरी की कोठी थी।

साधु गंगादास के नाम पर चौक गंगादास मोहल्ला

1874 में कोतवाली बनी। कोतवाली के पीछे रानी मंडी है, जिसका नामकरण इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की शुरुआत की याद में रखा गया। रानी मंडी व भारतीय भवन पुस्तकालय के पीछे पहले एक पठार था, जिसे खुशहाल पर्वत कहा जाता था। इसी नाम से वहां पर एक बस्ती अभी भी आबाद है। पास ही में पहले साधु गंगादास रहते थे, जिनके नाम पर चौक गंगादास मोहल्ला बसा।

मालवीय लोगों का डेरा जमा और बस गया मालवीय नगर मोहल्ला

खुशहाल पर्वत से नीचे की तरफ के खाली स्थान में मालवीय लोगों के डेरा जमा लेने से मालवीय नगर मोहल्ला बसा। इसके पास दक्षिण की ओर पहले किसी सती (देवी) का चौरा (चबूतरा) था, जिसे सत्ती चौरा मोहल्ला कहा जाता है। राजा अहिच्छत्र के नाम पर अहियापुर मोहल्ला बसा। दरिया (यमुना) के किनारे होने के कारण मुगलकाल से ही दरियाबाद नाम से एक मोहल्ला आबाद है।

दो गांवों पर बसा कंपनीबाग

जहां अब कंपनीबाग है, वहां पहले सम्दाबाद व छीतपुर नाम के दो गांव थे। अंग्रेजों के विरुद्ध गदर से नाराज कंपनी की पलटन ने दोनों गांव तबाह कर दिया और वहां कंपनी बाग (अल्फ्रेड पार्क) की नींव रखी। इंग्लैंड से इलाहाबाद भेजे गए सर विलियम म्योर को इलाहाबाद बहुत सुहाया। माना जाता है कि उन्हीं के जमाने में इलाहाबाद सबसे ज्यादा चमका। हाईकोर्ट का विशाल भवन (पुराना), गवर्नमेंट प्रेस, रोमन कैथोलिक चर्च, पत्थर का बड़ा गिरजा (आल सेंट्स कैथेड्रल) तथा सबसे महत्वपूर्ण म्योर सेंट्रल कालेज उन्हीं के समय में बने। उनके नाम से म्योराबाद बस्ती भी बसाई गई। इलाहाबाद का सबसे पुराना अखबार पायनियर के संस्थापक सर जार्ज एलन व म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन रहे मिस्टर ममफोर्डगंज के नाम पर एलनगंज व ममफोर्डगंज मोहल्ले बसे।

संत मलूकदास ने कहा औरंगजेब को ‘मीर राघव’

मुगल शासक अकबर के उत्तराधिकारियों में औरंगजेब की ख्याति कट्टर इस्लामी शासक की रही। संत मलूकदास ने भी उसे एक नाम ‘मीर राघव’ दिया था। इसी के नाम पर चौक के बगल में सराय मीर खां मोहल्ला बसा, जो बाद में भगवान शंकर के नाम पर लोकनाथ कहा जाने लगा। शायद मीरापुर और मीरगंज मोहल्ले भी इसी नाम पर बने। परन्तु इसकी कोई लिखित दास्तान उपलब्ध नहीं है। चौक व जांस्टनगंज के बीच स्थित घंटाघर सन 1913 में यहां के रईस रायबहादुर लाला रामचरन दास तथा उनके भतीजे लाला विशेशर दास ने अपने-अपने पुत्र लाला मुन्नीलाल की याद में बनवाया था।

प्रदर्शनी जैसा ही बनाया गया घंटाघर

घंटाघर ठीक उसी आकार व रंगरूप का बनवाया गया था जैसा कि दिसंबर सन 1910 में यमुना किनारे किले के पश्चिम में लगी प्रदर्शनी में बना था। दो सौ बीघा जमीन पर तीन महीने तक लगी रही इस राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनी को देखने देश-विदेश के आठ लाख लोग आए थे। जिसमें जर्मनी के युवराज व हिंदुस्तान के लगभग सभी रियासतों के राजे-महराजे शामिल थे। माना जाता है कि कुंभ मेले के बाद इतनी भीड़ इसी प्रदर्शनी में देखी गई थी। प्रदर्शनी पर साढ़े इक्कीस लाख रुपये व्यय हुए थे। इसकी दास्तान 1931 के सरकारी गजेटियर में भी है। देश में इसी साल पहली बार हवाई जहाज उड़ाया गया था।

अखबार के नाम पर बसा मोहल्ला

रायबहादुर के नाम पर बहादुरगंज मोहल्ला बसा तथा इस प्रांत के उप राज्यपाल रहे सर जार्ज हिवेट के नाम पर हिवेट रोड (विवेकानंद मार्ग) बनी, जबकि उस समय के ख्याति प्राप्त अंग्रेजी अखबार लीडर के नाम पर लीडर रोड (स्टेशन रोड) मोहल्ला बसा। इसका प्रकाशन वहीं होता था, जहां से आजकल दैनिक आज अखबार निकलता है। तब हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील और कुछ समय तक डिप्टी कलेक्टर रहे शहर के जैन रईस बाबू शिवचरण लाल के नाम पर एक सड़क राधा थिएटर मानसरोवर सिनेमा के सामने बनाई गई थी, जो अब भी इसी नाम से जानी जाती है। म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन रहे कामता प्रसाद कक्कड़ के नाम पर केपी कक्कड़ रोड (जीरो रोड) बनी। 1931 में रोशन बाग मोहल्ला नवाब सर बुलंद खां के नायब रोशन खां के नाम पर बसा। मुगल शासक जहांगीर ने अपनी पदवी बादशाही के नाम पर पहले बादशाही मंडी बनवाई थी जो अब मोहल्ला बन गया है।

कर्नलगंज से कैंट तक सफर

सिविल लाइन पहले एक पिछड़ा हुआ इलाका था। इसका विकास कार्य 1858 में शुरू हुआ, जो 17 वर्षों तक चलता रहा। पहले इसे कैनिंग टाउन (कैनिंगटन) कहा जाता था। 1920-21 के पहले अंग्रेजी सेना के कर्नल व अन्य अधिकारी आनंद भवन के आसपास रहते थे, जिसे कर्नलगंज कहा जाने लगा। लेकिन बाद में उन्हें दूसरी जगह बसा दिया गया जिसे छावनी क्षेत्र (कैंटोनमेंट) कहा जाता है। यहां के तत्कालीन कमिश्नर मिस्टर थार्नहिल के नाम पर थार्नहिल रोड (दयानंद मार्ग) बना।

औरंगजेब की जागीर पर जयपुर के राजा जयसिंह ने बसाए कई मोहल्ले

जयपुर के प्रसिद्ध राजा महाराज जयसिंह ने औरंगजेब द्वारा दी गई जागीर पर इलाहाबाद सहित कई जिलों में कटरा मोहल्ला बसाया। यहां के पुराने आमिल (दीवान) राजा नवल राय के नाम से कीडगंज व बैरहना के बीच मोहल्ला तालाब नवल राय बना। दीवान नवलराय लखनऊ की शिया रियासत के वजीर और सिपहसालार थे। अवध की सुबेदारी और हुकूमत के वे मजबूत स्तंभ थे और अवध के नवाब के भरोसेमंद सामंतों में गिने जाते थे। इन्होंने दारागंज में राधाकृष्ण का एक मंदिर बनवाया था। मंदिर में पूजा के लिए जिस खूबसूरत फुलवारी से फूल लिए जाते थे, वह फुलवारी रोड (कच्ची सड़क दारागंज) कहा जाता है।

कैसे पड़ा इलाहाबाद नाम?

नगर की प्रसिद्ध पथरचट्टी राम लीला कराने के लिए डेढ़ सौ साल पहले शहर के कारोबारियों में माने हुए सेठ लाला दत्ती लाल कपूर ने मुट्ठीगंज के आगे लंबी चौड़ी जमीन खरीदकर उसका नाम रामबाग रखा। बाद में इसी नाम से यहां एक मोहल्ला आबाद हुआ। मुगल काल व इससे पहले इलाहाबाद की ख्याति धर्म व मजहबी तौर पर ज्यादा थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि अकबर ने शहर के मंदिरों, मठों, अखाड़ों, मुस्लिम दायरों, दरगाहों, संतों, फकीरों, सूफियों व औघड़ों को देखकर पहले इसका नाम फकीराबाद रखा था। बाद में कुछ समय तक यह इलाहाबास (सरकारी गजेटियर में भी यही नाम मिलता है) नाम से जाना गया।

अकबर ने कहा, “अल्लाह से आबाद” तो बना इलाहाबाद

मजहबी प्रेरणा से ही अकबर ने इस नगर को अंत में ‘अल्लाह से आबाद’ कहा जो बाद में इलाहाबाद हो गया। तब से यही नाम बदस्तूर जारी है। धार्मिक वजहों से कुछ और मोहल्ले भी जाने गए। कल्याणी देवी, अलोपी देवी और सूर्यकुंड जैसे प्राचीन मंदिरों के नाम से कल्याणी देवी, अलोपीबाग और सूरजकुंड मोहल्ले बने। अत्रि ऋषि और अनसुइया आश्रम होने के कारण अतरसुइया मोहल्ला बसा।

 कैसे पड़ा नैनी का नाम?

शहर के पुराने पुरोहित 72 वर्षीय पं. नवरंग महराज के अनुसार, गंगागंज व बेनीगंज मोहल्ले करीब डेढ़ सौ साल पहले गंगेश्वर नाथ महादेव के भक्त पं. गंगाराम तिवारी व पं. बेनी प्रसाद के नाम पर बसाए गए थे, जबकि पुराने समय में यमुना के किनारे गउओं (गायों) का मेला लगने के कारण गऊघाट मोहल्ला बसा। सरकारी अभिलेखों के अनुसार, 1868 व 1896 में यमुना पार में भयंकर अकाल पड़ा। इसी दौरान कुमाऊं व गढ़वाल से कुछ पहाड़ी लोग यहां काम की तलाश में आए। वे अपने साथ नयना देवी की मूर्ति लाए और उसे यहीं स्थापित कर देवी के नाम पर नयनी (नैनी) कहने लगे। इसके पहले यहां सिर्फ जंगल था।

शहर के कुछ और मोहल्ले स्थानीय काम-धंधों के नाम से जाने जाते थे, जो अब भी जारी है। इनमें शामिल है ठठेरी बाजार (बर्तन), घास सट्टी, भूसौली (भूसा) टोला, गाड़ीवान टोला, बजाजा (कपड़ा) पट्टी, इत्यादि।

                                                                     साभारः Allahabadi Global Connect फेसबुक समूह

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