सरकार की नाकामी ने किया मजबूर, रोटी के लिए मौत से लड़ने को तैयार बिहारी मजदूर

पटनाः एक ओर रोजी-रोटी पर डाका पड़ने के बाद प्रवासी श्रमिकों की गांव लौटने की मजबूरी, तो दूसरी ओर श्रमिक स्पेशल से ही प्रवासियों की वापसी भी। वह भी बिहार सरकार की सहमति से। इतना ही नहीं, बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी का पीठ थपथपाना देखिये, बिहारी श्रम शक्ति का कितना सम्मान है। कोरोना काल का ऐसा प्रहसन बिहार में ही मिल सकता है। इसे सरकार द्वारा मानव तस्करी के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है।

कर्नाटक ने की थी बिहारी मजदूरों को रोकने की कोशिश

कर्नाटक के रियल स्टेट और निर्माण क्षेत्र के दिग्गजों संग बैठक के बाद वहां की सरकार ने प्रवासी मजदूरों की घर वापसी से इनकार कर दिया था। हो-हल्ला मचा तो सीएम येदियुरप्पा उन्हें भेजने को राजी हो गए। इसके पूर्व कर्नाटक से दो ट्रेनें बिहार आ चुकी थी। गुजरात में भी ऐसा ही हुआ, जब श्रमिक पैदल ही लौटने लगे तब मध्यप्रदेश की सीमा पर बलपूर्वक रोका गया। न मानने पर बलप्रयोग भी हुआ। यानी बंधक बनाने का प्रयास।

बिहार से तेलंगाना भेजे गये श्रमिक

7 मई को खगड़िया से 222 मजदूरों को लेकर पहली ट्रेन शुक्रवार को हैदराबाद से सटे लिंगमपल्ली स्टेशन पहुंची। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि एक हजार से अधिक श्रमिक रवाना हुए। यह वही ट्रेन थी जो सिकंदराबाद से मजदूरों को लेकर आई थी। लिंगमपल्ली स्टेशन पर स्क्रीनिंग के बाद श्रमिकों को विभिन्न हिस्सों में चावल मिलों तक भेजा गया। मजदूरों के लिए ट्रेन का इंतजाम तेलंगाना सरकार ने किया था। वहां की राइस मिलों में खगड़िया के कुशल श्रमिकों की खास मांग है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने कहा था कि बिहार से बड़ी संख्या में श्रमिक आना चाहते हैं और हम 20 हजार मजदूरों को लेने को तैयार है।

तेलंगाना की राइस मिलों में 90% श्रमिक बिहार के हैं और सभी होली में घर लौटे थे। डीएम आलोक रंजन घोष के मुताबिक तेलंगाना सरकार ने बिहार सरकार से मजदूरों को वापस काम पर भेजने का आग्रह किया था। सूचना मिली तो तेलंगाना सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई मजदूरों की सूची में शामिल मजदूरों से संपर्क साधा गया। उन लोगों ने काम पर वापस जाने की इच्छा जताई। इसके बाद सभी को श्रमिक स्पेशल ट्रेन से वापस भेजा गया।

मानव तस्करी जैसा मामला

रेलवे की घोषणा के मुताबिक श्रमिक ट्रेनें सिर्फ फंसे हुए लोगों के लिए चलाई जा रही हैं। बाद के दिनों में भी इसमें कोई संशोधन नहीं हुआ। फिर इन ट्रेनों से दूसरे राज्यों की फैक्टरियों को लेबर की सप्लाई क्यों की जा रही है? दुःखद तो यह है कि बिहार जैसा गरीब और बदहाल राज्य इसकी ब्रांडिंग भी कर रहा है कि देश हमारी श्रम शक्ति का लोहा मान रहा है।

इस कोरोना संकट में जब हर कोई अपने घर में सुरक्षित रहना चाहता है, कोसी अंचल के सस्ते मजदूर अगर कोरोना से तुलनात्मक रूप से अधिक संक्रमित इलाके में मजदूरी करने जाने के लिये तैयार हो गए हैं तो यह हमारी श्रम शक्ति का सम्मान नहीं है। यह पेट की लाचारी है कि वे मौत और रोटी में से किसी एक को चुनने के लिये विवश हैं।

याद रखना चाहिये कि छोटे बच्चों और महिलाओं की तस्करी भी इसी तर्क के आधार पर की जाती है कि वे खुद जाने के लिये सहमत हैं। मगर उन्हें जानबूझ कर खतरे में झोंकने को मानव तस्करी कहा जाता है।

अजय वर्मा
अजय वर्मा
समाचार संपादक