सप्तऋषि घाट पर भई भक्तन की भीड़! यहां महाराज के श्रीचरणों को छूने और आशीर्वाद लेने की होड़ थी। अबालवृद्ध के हुजूम पर अफरातफरी अवश्य थी,पर अराजकता नहीं थी। कार्यक्रम में कोई यांत्रिक अनुशासन नहीं था। एकदम नैसर्गिक अनुशासन की स्थिति थी। जो जहां थे,वहीं से महाराज को निहार रहे थे। अपार उत्साह वाला दृश्य! भला क्यों न हो। जन्म-जन्म की साधना जब सदगुरु के रूप में फलित हो तो उत्साह पैदा होगा ही। हरिद्वार के कामधेनु-लोक में जो उत्सव था,वह उस उत्साह की ही अभिव्यक्ति था।
वर्ष भर की साधना-यात्रा की समीक्षा का वक्त था। दृश्य ऐसा मानो अध्यात्म के बैंक का ऑडिट हो रहा हो। अमूमन ऑडिट में ‘क्या खोया और क्या पाया’ का लोग रोजनामचा चेक करते हैं,पर यहां कोई भी भक्त अपना बैलेंस-शीट देखने की स्थिति में नहीं था। सदगुरु के सान्निध्य और सामीप्य को पाकर सब निहाल थे। किसी को अपनी भी खबर लेने की सुध नहीं। मैंने जिनको भी प्रणाम किया वे बाउंस हो रहे थे। किसी का कोई जवाब नहीं। सब अपने में मगन। भला ऐसी भी बेसुधी होती है क्या? इसका अनुभव ही किया जा सकता है। जगदीश को पाना है,जग जीतना हो और जगजीत होना हो तो, आप इस पंक्ति को गुनगुना सकते हैं
साधना कीजिए,फिर समझिए बेसुधी क्या चीज है!
वैसे खोने के नाम पर यहां कुछ था भी नहीं। खोने के नाम पर जो कुछ था वह केवल दीनता ही थी। पाने के नाम पर जो कुछ था वह दिव्यता थी। जहां महाराज का मुक्ताकाश हो,वहां क्षुद्र छत की चाहत भला कौन करे? कौन बुड़बक होगा जो इस बैंक में अपना जीवन नहीं डिपॉजिट करना चाहेगा?
महाराज के इस बैंक में कोई धंधा और धन भी, धन्य हो जाता है। इसी को कहते हैं धन धान्य होना। सदगुरु के पास का यह जीवन-संचय ही मूल संचय है। यही जीवन-धन है, इसके अलावें कुछ नहीं। गुरु गोरख का भी ऐसा ही कुछ धंधा रहा होगा। कामधेनु-लोक में विराज रहे हमारे महाराज का यह दिव्य-कारोबार भी कुछ इस तरह का ही है।
मैं अभागा ही ठहरा। चांद पर भी गया तो मिट्टी उठा लाया। वैसे मेरे पास कोई साधना तो है नहीं, और ध्यान का भी कोई अनुभव नहीं। हर प्रस्ताव धन का ही रहा, ध्यान का नहीं। संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आता है पर सांसदों को ध्यान से कोई मतलब नहीं होता ? सब धनाकर्षण ही होता है। संसद राम की हो तो वहां ध्यान मंत्र और मंत्रणा संभव है। अब तो ये केवल शब्द भर हैं। अर्थ खोते शब्द का यह संधि काल तो है ही। मेरा भी संसदीय जीवन कुछ ऐसा ही है। इस पोस्ट में मैं ‘ पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’ का गीत नहीं गा सकता।
तो जीवन यूं ही ‘ निर्मला सीतारमण’ में उलझ कर रह जाएगा
यह सत्य है कि सीताराम पर ध्यान नहीं होगा तो जीवन यूं ही ‘ निर्मला सीतारमण’ में उलझ कर रह जाएगा। मेरा तो ऐसा ही घाटे का सौदा रहा और इसी में जीवन गुजर गया। अब मेरी विदाई का भोर सामने है फिर भी मेरी आँखें नहीं खुल रही हैं। यह दुर्भाग्य ही है।
कामधेनु लोक में सदगुरु के साथ बीते पलों का स्मरण और आनंद! बाहर और भीतर गंगा बह रही थी। निर्गुण और सगुण का वह अदभुत संगम! अवसर था गुरु पूर्णिमा का। इस कुंभ में डुबकी लगाते भक्तों का दैविक दृश्य सामने था। डूब जाना और डुबकी लगाने के अंतर हम समझ सकते हैं।भव सागर में डूब जाना नहीं पार जाना ही जीवन है। यह सदगुरु के बिना संभव नहीं है। दादू अगम अथाह है,दरिया सत्य कबीर… दादू का दरिया और हमारे गुरुदेव की दरियादिली! यह रूपक भी और क्षेपक भी है।
मंच पर महाराज का दरबार सजा था। सारे ब्रह्मचारी मौजूद थे। आत्मानंद महाराज सदा की भांति भोले बाबा के रूप ही नजर आए। सब कुछ से निस्पृह और निर्लिप्त। इनके निर्निमेष नयन में किसी चाहत की चमक नहीं। प्रार्थना और महाराज की भक्ति की गहरी झील जो सबों को आकर्षित करती है।
स्वामी अच्युतानंद वैसे किसी की सुनते नहीं, पर सुना अवश्य देते हैं। स्वामी जी मध्य प्रदेश में ही नहीं हैं बल्कि महाराज के मध्य में भी रहते हैं। महाराज के ऐसे महावीर हैं जो सीता का पता ही नहीं लगाते बल्कि लंका जला के आ जाते हैं। महाराज के हाय पिच पर अक्सर ही ये बैटिंग करते नजर आते हैं। ये ऐसे स्वामीजी हैं जो कभी अभिव्यंजना में नहीं जीते। अभिधा में जीना ही इनका आधार रहा है। याचना भी नहीं, निवेदन भी नहीं बस सूचना देना होता है इन्हें। न किए तो गए काम से। खजाना के बीच भी इनका विदेह बना रहना, यह सदगुरु की ही कृपा है। पीछे मुड़ तो पीछे मुड़। गुरु का आदेश हुआ तो कौन पलट के देखता है। ऐसे ही ये हैं अच्युतानंद बाबा।
अभयानंद बाबा का काव्यावतार नजर आया। महाकवि का साथ हो तो जीवन यूं ही कविता बन जाता है। एक कवि और गीतकार के रूप में स्वामी अभयानंद का नया आयाम पहली बार दिखा। कविता जब भगवान से जुड़ती है वह कालजयी हो जाती है। मंच पर इनकी रचना लोगों को भक्ति और भगवान से जोड़ रही थी।
सर्वानंद बाबा का प्रबंधकीय कौशल चारों तरफ दिख रहा था। एकदम ही मोहक और मनोरम दृश्य था। इस कार्यक्रम में सुरेन्द्र अग्रवाल यूं ही भागते दौड़ते नजर आए। हर तरफ परमानंद था।
सुबह का सत्संग जारी था। महाराज के अनन्य स्वामी प्रेमानंद का प्रवचन चल रहा था। गुरु पूर्णिमा पर बोल रहे थे। गुरु+पूर्ण+मां=गुरु पूर्णिमा की उनकी व्याख्या कानों से टकड़ा रही थी। तब गुरुदेव व्यासपीठ पर नहीं थे।अपने कक्ष में थे। इस बुद्धू को भी घर लौटना था। वैसे घर लौटने की हिम्मत तो बुद्ध पुरुष ही दिखा सकते हैं। हमारा लौटना या न लौटना अर्थहीन ही है। आशीर्वाद के लिए महाराज के कक्ष में प्रवेश किया। मां के रूप में वे सामने थे। फिर वही ममता वही करुणा। मेरी वैसी ही चिंता । वैसा ही अतुलनीय प्रेम। पथ और पाथेय का ध्यान। गुजर बसर का ख्याल। परिवार और परिजन की चिंता। अदभुत हैं महाराज आप।
हृदय भर रहा है। आँखें सजल हो गई हैं। अश्रुधार है। सदगुरु पाकर बादशाह हो रहा हूं। इस खुशी के आंसू में मैं तो भींग ही रहा हूं आप सब भी भींग रहे होंगे। सबके सदगुरु और सबके लिए सदगुरु। इस समदर्शिता को हम सब महसूस कर रहे हैं।
जो इस अवसर पर आए और नहीं आ पाए सबके लिए महाराज विद्यमान हैं। ऐसी अनुभूति हर दिन को गुरु पूर्णिमा बना दे। शबरी का जूठा बेर है और मेरी जूठी बातें हैं। भक्ति अब नवधा की तरफ मुड़ गई है। जीवन के इस नवाचार के साथ मैं दिल्ली लौट आया हूँ।
आप सबके भीतर महाराज मौजूद हैं।इस मौजूदगी को प्रणाम करते हुए विदा लेता हूं।फिर दूसरे पोस्ट में किसी अन्य अनुभव के साथ…