नई दिल्लीः आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की सबसे खतरनाक और विवादित तकनीकों में डीपफेक आज सबसे ऊपर है। Deepfake के जरिए किसी व्यक्ति का चेहरा, आवाज़ और हाव-भाव इस तरह बदले या तैयार किए जाते हैं कि वह पूरी तरह असली प्रतीत होता है। समस्या यह नहीं है कि यह तकनीक मौजूद है, बल्कि यह है कि अब आम लोग भी कुछ ही मिनटों में Deepfake तैयार कर सकते हैं। यही वजह है कि यह तकनीक लोकतंत्र, समाज और मीडिया के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है।
Deepfake क्या है और यह कैसे काम करता है?
डीपफेक तकनीक मशीन लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क पर आधारित होती है। इसमें किसी व्यक्ति की तस्वीरों, वीडियो और ऑडियो का बड़ा डाटा सिस्टम को दिया जाता है, जिसके आधार पर AI उसी व्यक्ति की शक्ल और आवाज़ में नया कंटेंट तैयार कर देता है। कई मामलों में यह पहचानना बेहद मुश्किल हो जाता है कि वीडियो या ऑडियो असली है या नकली।
राजनीति और लोकतंत्र पर सीधा हमला
Deepfake का सबसे गंभीर असर राजनीति के क्षेत्र में देखा जा रहा है। नेताओं के फर्जी बयान, चुनावी भाषण और आपत्तिजनक वीडियो वायरल कर माहौल को प्रभावित किया जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि चुनाव के समय Deepfake का इस्तेमाल मतदाताओं को भ्रमित करने और जनमत को प्रभावित करने का सबसे आसान हथियार बनता जा रहा है।
सामाजिक और व्यक्तिगत नुकसान
डीपफेक केवल एक राजनीतिक हथियार नहीं है, बल्कि यह आम नागरिकों के लिए भी बड़ा खतरा बन चुका है। फर्जी वीडियो और ऑडियो के जरिए लोगों को बदनाम करना, ब्लैकमेल करना और मानसिक प्रताड़ना देना अब साइबर अपराध की एक नई और खतरनाक श्रेणी बन गई है। खासकर महिलाओं से जुड़े Deepfake मामलों में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जहां बिना उनकी जानकारी या सहमति के आपत्तिजनक कंटेंट तैयार किया गया।
सोशल मीडिया: Deepfake का सबसे बड़ा मंच
डीपफेक कंटेंट सोशल मीडिया पर बेहद तेजी से फैलता है, क्योंकि प्लेटफॉर्म्स के एल्गोरिद्म भावनात्मक और चौंकाने वाले वीडियो को प्राथमिकता देते हैं। एक बार कोई Deepfake वीडियो वायरल हो जाए, तो भले ही बाद में वह फर्जी साबित हो जाए, तब तक वह अपना असर दिखा चुका होता है।
पहचानना क्यों हो रहा है मुश्किल?
Deepfake तकनीक अब इतनी उन्नत हो चुकी है कि चेहरे की हलचल और आंखों की मूवमेंट भी पूरी तरह प्राकृतिक लगती है। आवाज़ में भावनाएं और लहजा वास्तविक व्यक्ति से मेल खाते हैं। कम रेजोल्यूशन वाले वीडियो में फर्जीपन पकड़ना लगभग असंभव हो जाता है। यही कारण है कि आम दर्शक ही नहीं, कई बार विशेषज्ञ भी भ्रमित हो जाते हैं।
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भारत में आईटी एक्ट और साइबर कानूनों के तहत डीपफेक पर कार्रवाई के प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि ये पर्याप्त नहीं हैं। Deepfake को लेकर अलग और सख्त कानून, तेज़ जांच प्रक्रिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही तय करना अब समय की सबसे बड़ी जरूरत बन चुकी है।
समाधान क्या है?
विशेषज्ञों के अनुसार Deepfake से निपटने के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर AI-आधारित Deepfake डिटेक्शन सिस्टम अनिवार्य किए जाने चाहिए। पत्रकारिता में मल्टी-लेयर फैक्ट-चेकिंग को सख्ती से लागू करना होगा और आम लोगों को Deepfake के खतरे व उसकी पहचान के तरीकों के प्रति जागरूक करना भी जरूरी है।
निष्कर्ष- Deepfake केवल तकनीकी समस्या नहीं, भरोसे की बुनियाद पर सीधा हमला
Deepfake केवल एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि समाज में भरोसे की बुनियाद पर सीधा हमला है। अगर समय रहते इस पर प्रभावी नियंत्रण नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब लोग सच को भी शक की नजर से देखने लगेंगे। डिजिटल युग में सच्चाई की रक्षा अब सिर्फ तकनीक से नहीं, बल्कि सतर्कता, जिम्मेदारी और जागरूकता से ही संभव है।