शरीफ इंसान कभी कायदे का लेखक नहीं होता- काशीनाथ सिंह

भारत के बारे में अंग्रेजी में नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं में लिखा जा रहा है। पढ़िए लेखक काशीनाथ सिंह से समूह संपादक दीपक सेन के साथ 14 नवंबर 2012 की मुलाकात के अंश

नई दिल्ली: हिन्दी के बहुचर्चित लेखक काशीनाथ सिंह ठेठ बनारसी अंदाज में कहते हैं कि शरीफ इंसान कभी कायदे का लेखक नहीं हो सकता है। हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में भारत के बारे में लिखा जा रहा है। काशीनाथ सिंह ने दीपक सेन से खास बातचीत में कहा था, “भारत के बारे में अंग्रेजी में नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं में लिखा जा रहा है। अंग्रेजी की पत्र पत्रिकाओं में गरीबों का मजाक उड़ाया जा रहा है। इसका विरोध किया जाना चाहिए। हम 70 के दशक में इसका विरोध कर चुके हैं।”

काशीनाथ सिंह ने कहा, “मनोरंजन के लिए लिखे जाने वाला साहित्य समाज के लिए नहीं लिखा जाता। इसलिए भद्र आदमी कभी कायदे का लेखक नहीं होता। लेखक होने के लिए थोड़ा आवारापन और थोड़ी बदमाशी बेहद जरूरी है। दूसरों की नज़र में अच्छा दिखने की कोशिश करने वाला रचनाकार बेहतर लेखक हो ही नहीं सकता है।”

काशीनाथ सिंह का नाम आते जेहन में ‘काशी का अस्सी’ आता है। मगर उन्हें ‘रेहन का रग्घू’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था।

भाषा बदल रही है

काशीनाथ सिंह ने कहा, “इस वक्त भाषा बदल रही है। और भाषा में देशज शब्दों को ही स्थान मिलना चाहिए, क्योंकि यही उचित है। मगर साथ ही अंग्रेजी के वे शब्द भी लिए जाये। जो आम जनता की प्रचलित भाषा में आ गये हैं।”

उन्होंने कहा, “प्रकाशक अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए हिंग्लिश में अखबार निकाल रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव भाषा पर हो रहा है। एक भाषा या बोली मरती है तो एक सभ्यता और संस्कृति मरती है।”

उन्होंने कहा, “नेहरू के दौर के अंत और भारत चीन युद्ध के बाद देश भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ गया था। इसी दौर में अमेरिका दूरदृष्टि के साथ रूस को दरकिनार करने में लगा हुआ था। वर्तमान वैश्वीकरण उसी अमेरिकी नीति का परिणाम है।”

पूर्णिया से काशी तक

काशीनाथ सिंह ने बताया, “व्यक्तियों पर संस्मरण लिखे जाते रहे हैं। लेकिन मैंने सोचा कि स्थान पर संस्मरण क्यों नहीं लिखा जा सकता है। हालांकि, रेणु के उपन्यास में पूर्णिया मिलता है। मगर काशी का अस्सी में पप्पू की चाय की दुकान एक शहर के मोहल्ले की संस्कृति को दर्शाती है।”

सिंह ने कहा, “इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद एक महीने तक वह अस्सी घाट तक जाने लायक नहीं रहे थे। बाद में जब लोग चाय की दुकान और उसके पात्रों गया सिंह, तन्नी गुरू को खोजते हुए आने लगे तो उन लोगों को लगा कि उनकी निंदा नहीं की गयी है, बल्कि वे प्रसिद्ध हो गये हैं।”

उन्होंने साफ तौर कहा, “उपन्यास के अस्सी और आज के अस्सी में बहुत बदलाव आ गया है। उस चाय की दुकान में चाय के साथ भांग मिलती थी और साधनहीन, विद्यार्थी और अध्यापक वहां आते थे।”

उन्होंने कहा, “पहले साहित्य का केंद्र बनारस, इलाहाबाद और पटना हुआ करते थे। लेकिन बीते दो दशकों में साहित्य का केंद्र बदल गया है। फिर भी मेरी सोच हमेशा से यह रही है कि वह लिखना चाहिए, जो लिखना चाहते हो।”