किस्सा बॉलीवुड का- हिन्दी फिल्म उद्योग में कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म कोई नई बात नहीं!

मुंबई: सुशांत सिंह राजूपत की मौत के बाद हिन्दी फिल्म उद्योग (बॉलीवुड) में कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म को लेकर प्रश्न खड़े हो रहे हैं। मगर मायानगरी में यह कोई नई बात नहीं है। यह सब तो काफी लंबे अरसे से चला आ रहा है। शुरूआत में कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म (Nepotism) केवल पर्दे पर आने वालों तक सीमित रहा। मगर आहिस्ता-आहिस्ता इसके पैर संगीतकार, गीतकार और फिल्म निर्देशन सहित दूसरे आयामों पर भी फैलने लगे। धीरे-धीरे यह बात फैलायी गयी कि फिल्म एक व्यक्ति के कंधे पर चलती है?

एक वक्त में जॉनी वाकर और महमूद जैसे हास्य अभिनेताओं की लंबी फेहरिस्त हुआ करती थी। इस कतार में किशोर कुमार जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी अभिनेता का नाम भी शामिल था। मगर पिछले तीस सालों में नायक ने कॉमेडी भी शुरू कर दी। यही स्थिति हिन्दी फिल्मों के विलेन की भी हुई।

इस माध्यम का सही तरह से उपयोग किया गया होता तो……। यह मनोरंजन के साथ समाज को संदेश देने वाला सशक्त माध्यम होता।

गुरूदत्त से लेकर सुशांत सिंह राजपूत तक

गुरूदत्त ने दो बार आत्महत्या का प्रयास किया। तीसरी बार नींद की गोली शराब के साथ लेकर हमेशा के लिए मौत के आगोश में चले गए। जैसा कि हाल ही में सुशांत सिंह राजपूत ने किया। ऐसे नामों की एक लंबी फेहरिस्त है। इस सपनीली और चमक दमक भरी दुनिया का स्याह सच बेहद भयानक है। इसके बारे में लोग सोच भी नहीं सकते हैं। एक वक्त की मशहूर अदाकारा विम्मी का शव हाथ ठेले पर ले जाया गया। कई हिट फिल्म देने वाले राजकिरण अटलांटा में ऋषि कपूर को पागलखाने में मिले। ए के हंगल और भारत भूषण का अंत भी बेहद दर्दनाक रहा।

भारतीय फिल्म जगत का स्वर्णयुग

याद करिये 50 और 60 का दशक का दौर स्वर्णयुग। इस वक्त दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, राजेन्द्र कुमार और सुनील दत्त का नाम सबसे पहले फिल्म प्रेमियों की जुबान पर आता हैं। ये सभी अभिनेता नहीं बल्कि ‘हीरो’ थे। ये अपनी ‘स्टाइल’ के लिए जाने जाते थे, चरित्र के लिए नहीं। और हॉलीवुड के नायकों की नकल करते थे। इस दौर के कालजयी अभिनेता गुरूदत्त और बलराज साहनी का नाम लोगों की जबान पर क्यों याद नहीं आता?

अगर बात उस दौर की अभिनेत्रियों की जाए तो वहीदा रहमान, नूतन और नर्गिस का नाम लिया जा सकता है। हिन्दी फिल्मों में अभिनेत्रियों का हिस्सा कहानी में काफी कम होता है। और अकेली अभिनेत्री की मुख्य भूमिका वाली काफी कम हिन्दी फिल्में बनी है। संभवत: महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ इस तरह की पहली फिल्म थी।

बलराज साहनी की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार से नवाजा गया। वहीं, गुरूदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ को फिल्म समीक्षकों द्वारा 2002 में चुनी गयी ‘दुनिया की आल टाइम बेस्ट 100 फिल्मों’ में एकमात्र भारतीय फिल्म थी। इसे क्या माना जाये कि हिन्दी फिल्म उद्योग ने अच्छी फिल्मों का निर्माण ही नहीं किया?

बांग्ला सिनेमा से समानांतर सिनेमा की शुरूआत

इटली, जापान और फ्रांस की तर्ज पर भारत में सिनेमा की नयी धारा की शुरूआत बांग्ला सिनेमा से हुई। इसमें सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और तपन सिन्हा जैसे नाम जुड़े थे। ये सभी नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित थे। इसे ही कमर्शियल और पैरलल (समानांतर) सिनेमा में बांटा गया। समानांतर सिनेमा से जुड़े अन्य नामों में बिमल रॉय, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरूदत्त, चेतन आनंद, श्याम बेनेगल, गुलजार, मणी कौल, केतन मेहता, अदूर गोपालकृष्णन, राजिंदर सिंह बेदी और गोविंद निहलानी शामिल हैं।

ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी का सिनेमा

इसी बीच दो नाम उभरकर सामने आये ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी। इन दोनों ने मध्यमवर्गीय परिवार की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों का निर्माण 60 के दशक के अंत में शुरू किया। यह कमर्शियल और पैरलल (समानांतर) सिनेमा के बीच का सिनेमा था। इस दौर का संगीत बेहतरीन रहा।

स्टाइलिश हीरो राजेश खन्ना बेहतरीन अभिनेता थे। राजेश खन्ना ने अपनी सभी बेहतरीन फिल्में ऋषिकेश मुखर्जी के साथ की थी। सीधी सपाट बात कही जाये तो हिन्दी फिल्म उद्योग अभिनेता को एक फ्रेम में ढालने की जुगत में रहता है।

रोमांटिक क्लासिक फिल्मों का सफर

इसके बाद आया 70 और 80 का रोमांटिक क्लासिक फिल्मों का दशक। 70 के दशक में राजेश खन्ना का शबाब ढलान पर आ गया। इस दौर के नवीन निश्चल, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र और परीक्षित साहनी जैसे कई हीरो रजतपट पर आये। मगर सभी की अपनी अलग तरह की स्टाइल थी।

देश के बदलते सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवेश में जंजीर जैसी फिल्म आयी। इसका नायक अमिताभ बच्चन भी अभिनेता नहीं बल्कि ‘हीरो’ था। दर्शक के गुस्से को फिल्मों के जरिये भुनाया गया। इस दौर में भी कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म का बोलबाला रहा। यदि नहीं तो संजीव कुमार, अमोल पालेकर, फारूख शेख, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी और अनुपम खेर जैसे अभिनेताओं को काफी देर से और कम फिल्में क्यों मिली?

इस दौर में स्मिता पाटिल और शबाना आजमी जैसी कुछ अभिनेत्रियां सामने आयी। मगर बहुत कम फिल्मों में इनके हिस्से में दमदार किरदार आया। और पुरूष प्रधान भारतीय समाज की मानसिक सोच पर्दे तक पहुंची। हिन्दी फिल्मोद्योग ने ढर्रे के चलने के कारण अपनी बेहतरीन अभिनेत्रियों का लाभ नहीं उठाया।

अंडरवर्ल्ड, कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म का चरम

अब आता है 90 के दशक का नया हिन्दी फिल्म उद्योग। इस दौर में अंडरवर्ल्ड की गिरफ्त हिन्दी फिल्म उद्योग में काफी मजबूत हो गयी। और अंडरवर्ल्ड से तय होता था कि फिल्म में हीरो हीरोइन कौन होंगे। कौन संगीत देगा। गीतकार कौन होगा। हिन्दी सिनेमा मंडी में तब्दील हो गया। करोड़ों रूपये लगाये जाने लगे और कला कहीं सुनहरे पर्दे में दफन हो गयी।

गुलशन कुमार की हत्या। संगीतकार जोड़ी नदीम श्रवण के नदीम का लंदन फरार होना। इसकी पुष्टि करते हैं। बॉलीवुड पर बच्चन परिवार, यशराज फिल्म्स, धर्मा प्रोडक्शन, बालाजी टेलीफिल्म्स, सलमान खान कैंप, शाहरूख खान कैंप, भट्ट कैंप और आमिर खान कैंप ने कब्जा हो गया। इन नामों ने कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म को बढ़ावा दिया। इन नामों की अपने क्राफ्ट पर कोई पकड़ नहीं है।

हालांकि, इस दौर में मनोज बाजपेयी, इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, आशुतोष राणा, विजयराज और कार्तिक आर्यन जैसे बेहतरीन अभिनेता आये। मगर कैंप में नहीं होने के कारण अधिकतर को दरकिनार कर दिया गया। वहीं, फिल्मी परिवार के बच्चों के लिए रेड कार्पेट बिछा दिया जाता है।

ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाले भारतीय भानू अथैया, पंडित रविशंकर, एआर रहमान, गुलजार और रेसुल पोकुट्टी का किसी परिवार या कैंप से संबंध नहीं है। यहां यह प्रश्न वाजिब होगा कि यदि फिल्मी परिवार के बच्चे काबिल थे तो उन्हें कभी ऑस्कर अवॉर्ड क्यों नहीं मिला?

संगीत भी नहीं रहा अछूता

बीते तीन दशकों में हिन्दी फिल्म उद्योग में कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म (Nepotism) परवान चढ़ गया। इस दौर में हिन्दी फिल्मों की पहचान गीत और संगीत कहीं खो गये। चोरी के संगीत से फिल्मी गीत बनाने वाले बड़े संगीतकार बन गये। गीतों के शब्दों की मधुरता कहीं खो गयी।

यही वह दौर था जब हिन्दी फिल्मों से भजन गायब हो गया। और इसकी जगह सूफी संगीत ने ले ली। ऐसा आखिर किन ताकतों के चलते हुआ? इन तीन दशकों में संगीत के क्षेत्र में कैंप, ग्रुप और भाई-भतीजावाद को तरजीह दी जाने लगी। इस दरम्यान कई बेहतरीन गायक गायिकाओं का सफर समाप्त कर दिया गया। नौशाद जैसे संगीतकार ने संगीत देना बंद कर दिया। ओ पी नैयर ने कभी लता मंगेशकर को अपना गाना गाने का मौका नहीं दिया? यानी ​हर दौर में कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म बना रहा। हाल में सोनू निगम ने भी इस बारे में अपनी बात कही थी।

असली जिम्मेदार कौन….दर्शक या समीक्षक?

फिल्मों की बदलती तस्वीर के लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार है दर्शक। जनता को अभिनय के क्राफ्ट की समझ ही नहीं है। और कैंप, ग्रुप और नेपोटिज़म में घिरी हिन्दी फिल्मों के रहनुमा जानते थे कि दर्शक को मुर्ख कैसे बनाना है। दर्शकों को ‘हीरोइज्म’ की कल्पना में फंसा दिया गया। भव्य सेट और तिलिस्म की दुनिया को रचकर भावहीन चेहरों को हीरो और हीरोईन बना दिया गया। आला दर्जे के अभिनेताओं को हाशिये पर डाल दिया गया।

जनता का दोहरा चरित्र इससे समझा जा सकता है। सुशांत के मामले के बाद हो हल्ला मचा रहे हैं। मगर किसी हीरो या हीरोईन के फोटो पोस्ट करने पर सब भूल जायेंगे।

इसमें हमारी पत्र पत्रिकाओं का भी कम दोष नहीं है। इनके माध्यम से ग्लैमर और गॉसिप परोसा गया। कभी भी और कहीं भी दर्शक को वास्तविकता से परिचय ही नहीं कराया। फिल्म विधा के दूसरे क्राफ्ट के बारे में कभी कुछ लिखा ही नहीं गया। फिल्म समीक्षक भी किसी ना किसी कैंप का हिस्सा होते हैं। फिल्मों की समीक्षा भी पैसे लेकर की जाती है। आखिर करोड़ों के निवेश को वापस भी तो लेना है?

रहम-ओ-करम से हिन्दी फिल्मों के स्टार

इस वक्त भावहीन चेहरे वाले हीरो हीरोइनों की भरमार है। सोचिये जिसके चेहरे पर भाव ही ना आता हो। वह अभिनेता या अभिनेत्री कैसे हो सकता है? हर साल एक हजार से अधिक फिल्मों का निर्माण होता है। यदि फिल्मों के नाम लोगों से पूछे जाये तो पांच फिल्मों के नाम ही याद आयेंगे। आखिर नये और होनहार कलाकारों को कब मौका मिलेगा?

स्थिति इतनी बदतर हो गयी है कि पोर्न स्टार को हीरोइन बना दिया जाता है। हिन्दी नहीं बोल पाने वाले लोग हिन्दी की फिल्मों के ‘स्टार’ हैं। सोचिये इसके लिए जिम्मेदार कौन है? यहां इस बारे में सोचना होगा कि हॉलीवुड के चर्चित निर्देशक मीरा नायर और शेखर कपूर  की हिन्दी फिल्मोद्योग में क्यों कोई पूछ नहीं होती?

अब स्थिति यूं हो चली है कि फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों को ही बॉयकाट किया जाता है। जो किसी कैंप या प्रोडक्शन हाउस से मिलकर नहीं चलते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो आज की फिल्मी दुनिया को अपनी बपौती बना बैठे हैं। क्या ऐसे लोगों का बहिष्कार होना जरूरी नहीं है?

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दीपक सेन
दीपक सेन
मुख्य संपादक