नई दिल्ली: 25 दिसंबर-यह तारीख सिर्फ एक पूर्व प्रधानमंत्री की जयंती नहीं, बल्कि उस राजनीतिक संस्कृति की याद दिलाती है, जिसमें विचारों की लड़ाई होती थी, शब्दों की मर्यादा बनी रहती थी और राष्ट्र सर्वोपरि होता था। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के ऐसे शिखर पुरुष थे, जिन्हें सत्ता में रहने वाले भी आदर से सुनते थे और विपक्ष में बैठे लोग भी गंभीरता से लेते थे।
ग्वालियर से संसद तक: एक विचार यात्रा
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज (वर्तमान लक्ष्मीबाई कॉलेज) और DAV कॉलेज, कानपुर से शिक्षा प्राप्त की।
अटल बिहारी वाजपेयी की पत्रकारिता यात्रा
अटल बिहारी वाजपेयी ने 1947 के आसपास पत्रकारिता की शुरुआत की। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में कार्य किया। इसके बाद वे ‘राष्ट्रधर्म’, ‘वीर अर्जुन’ और ‘स्वदेश’ (लखनऊ) जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े, जहां वे संपादक की भूमिका में भी रहे।
उस दौर में उनकी लेखनी राष्ट्रवाद, सामाजिक सरोकार, लोकतांत्रिक मूल्यों और समकालीन राजनीति पर केंद्रित रहती थी। उनकी भाषा में तथ्य, तर्क और संवेदना का ऐसा संतुलन था, जिसने उन्हें एक अलग पहचान दी। यही पत्रकारिता अनुभव आगे चलकर संसद में उनके संयत, तार्किक और प्रभावशाली भाषणों की नींव बना।
पत्रकारिता से राजनीति तक का सफर
पत्रकारिता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी का सीधा संवाद समाज और राष्ट्रीय आंदोलनों से स्थापित हुआ। स्वतंत्रता के बाद के भारत में चल रही वैचारिक बहसों, राष्ट्र निर्माण और जनसंघर्षों को उन्होंने नज़दीक से देखा और समझा।
इसी दौरान उनका जुड़ाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक कार्यों से गहरा होता गया। 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को संगठनात्मक और वैचारिक जिम्मेदारियां मिलीं। पत्रकारिता में अर्जित उनकी विचारशीलता, लेखन क्षमता और वक्तृत्व कला ने उन्हें जल्द ही जनसंघ का प्रमुख चेहरा बना दिया।
लेखक और विचारक दृष्टि को बनाया राजनीति की ताकत
1957 में वे पहली बार लोकसभा पहुंचे, और यहीं से उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन शुरू हुआ। पत्रकारिता से राजनीति में आने के बावजूद उन्होंने लेखक और विचारक की दृष्टि कभी नहीं छोड़ी, बल्कि उसे अपनी राजनीति की ताकत बनाया।
शब्दों ने दिखाया सत्ता से पहले रास्ता
यही कारण है कि अटल बिहारी वाजपेयी को केवल राजनेता नहीं, बल्कि “पत्रकार से प्रधानमंत्री तक का वैचारिक सफर तय करने वाला नेता” कहा जाता है-जहां शब्दों ने सत्ता से पहले रास्ता दिखाया। पत्रकारिता से राजनीति तक का उनका सफर बताता है कि वे केवल सत्ता के नहीं, विचार के नेता थे।
जनसंघ से प्रधानमंत्री तक
1957 में अटल जी पहली बार बलरामपुर लोकसभा सीट से सांसद बने। यह वही संसद थी, जहां उनकी वाकपटुता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी प्रभावित किया।
सत्य हुआ नेहरू का ऐतिहासिक कथन-
घटना 1957–58 के आसपास की है। अटल बिहारी वाजपेयी उस समय भारतीय जनसंघ के युवा सांसद थे और पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। वे संसद में लगातार तीखे, तार्किक लेकिन मर्यादित भाषण दे रहे थे। उनकी भाषा में न तो कटुता थी और न ही व्यक्तिगत हमला-बल्कि तथ्यों, तर्क और राष्ट्रहित की बात होती थी। यही बात तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को विशेष रूप से प्रभावित कर रही थी। संसद में अटल बिहारी वाजपेयी का एक भाषण सुनने के बाद नेहरू ने अपने सहयोगियों और सांसदों से कहा-“इस युवक में मुझे भारत का भावी प्रधानमंत्री दिखाई देता है।”
यह कोई सार्वजनिक भाषण नहीं, बल्कि संसदीय परिसर में कही गई टिप्पणी थी, जिसे बाद में कई वरिष्ठ पत्रकारों और सांसदों ने दर्ज किया।
क्यों असाधारण था पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह बयान?
अटल जी विपक्ष में थे, वह भी जनसंघ जैसे वैचारिक रूप से विपरीत दल से। नेहरू सत्ता में रहते हुए शायद ही कभी विपक्ष के किसी नेता की ऐसी खुली सराहना करते थे। यह टिप्पणी व्यक्तित्व, वक्तृत्व और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर की गई थी, न कि राजनीतिक सहमति के कारण।
अटल में क्या देख रहे थे नेहरू?
नेहरू को अटल में ये गुण साफ दिख रहे थे—
- गहरी वैचारिक समझ
- भाषा पर असाधारण पकड़
- संसदीय मर्यादा
- राष्ट्रहित को दलगत राजनीति से ऊपर रखना
नेहरू जानते थे कि लोकतंत्र को ऐसे ही विपक्ष की ज़रूरत होती है।
इतिहास ने कैसे इस कथन को सही साबित किया
करीब 40 साल बाद वही अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बने। गठबंधन राजनीति के सफल शिल्पकार साबित हुए और देश को पोखरण, लाहौर बस यात्रा, स्वर्णिम चतुर्भुज जैसे ऐतिहासिक फैसले दिए। इसलिए नेहरू का यह कथन आज राजनीतिक दूरदृष्टि की सबसे सटीक भविष्यवाणियों में गिना जाता है।
“नेहरू ने विपक्ष में बैठे जिस युवा सांसद में प्रधानमंत्री देखा था, वही अटल बिहारी वाजपेयी आगे चलकर भारतीय राजनीति का अटल स्तंभ बने।”
कवि हृदय, राजनीतिक मस्तिष्क
अटल जी की राजनीति में कविता केवल शौक नहीं थी, बल्कि उनकी संवेदना का स्रोत थी। उन्होंने लगभग 80 से ज्यादा कविताएं लिखीं। अटल जी की कविताएँ विभिन्न समयों में, अलग-अलग पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुईं। कई कविताएँ बाद में संकलनों में जोड़ी गईं, कुछ भाषणों और डायरी-नुमा लेखन से भी सामने आईं। उन्होंने कभी स्वयं कविताओं की गिनती या संपूर्ण सूची सार्वजनिक रूप से नहीं दी।
अटल जी के प्रमुख कविता-संग्रह
उनकी कविताएँ इन प्रसिद्ध पुस्तकों में संकलित हैं—
- मेरी इक्यावन कविताएँ
- संकल्प काल
- अमर आग है
- कदम मिलाकर चलना है
- नयी डगर
इन संकलनों को मिलाकर उनकी कविताओं की संख्या 80–100 के बीच मानी जाती है।
अटल जी की कविताओं की विशेषता
अटल जी की कविताएँ राष्ट्रवाद और मानवता का संतुलन,संघर्ष, आशा, आत्मबल, लोकतंत्र, युद्ध, शांति और जीवन दर्शन को सहज, सरल लेकिन गहरे अर्थों में प्रस्तुत करती हैं।
उनकी सबसे प्रसिद्ध पंक्तियाँ—
“हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ…”
इन पंक्तियों में उनके संघर्ष, आत्मविश्वास और राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता झलकती है।
विदेश मंत्री के रूप में ऐतिहासिक भाषण
1966 में अटल बिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री बने। संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देने वाले वे पहले भारतीय नेता थे। यह केवल भाषण नहीं था, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मविश्वास की वैश्विक घोषणा थी।
प्रधानमंत्री पद: तीन बार, तीन अलग परिस्थितियाँ
अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बने—
- 1996 (13 दिन)
- 1998–1999 (13 महीने)
- 1999–2004 (पूर्ण कार्यकाल)
1996 में संसद में विश्वास मत के दौरान उनका भाषण आज भी राजनीतिक नैतिकता की मिसाल माना जाता है—“सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, लेकिन यह देश रहना चाहिए।”
पोखरण परमाणु परीक्षण: निर्णायक नेतृत्व
मई 1998 में अटल सरकार ने पोखरण में परमाणु परीक्षण कर भारत को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। अमेरिका और यूरोपीय देशों के प्रतिबंधों के बावजूद अटल जी ने स्पष्ट कहा—“भारत शांति में विश्वास करता है, लेकिन अपनी सुरक्षा के प्रश्न पर समझौता नहीं करेगा।” उनका यह निर्णय भारत की सामरिक नीति में मील का पत्थर साबित हुआ।
भारत-लाहौर बस यात्रा: शांति का साहस
फरवरी 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा ने दक्षिण एशिया की राजनीति को नया संदेश दिया। मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर उन्होंने कहा— “दोस्ती सरकारों से नहीं, मुल्कों की जनता से होती है।” कारगिल युद्ध ने इस पहल को झटका दिया, लेकिन इतिहास में यह यात्रा शांति के साहस के रूप में दर्ज हो गई।
गठबंधन राजनीति के शिल्पकार
अटल जी ने गठबंधन को मजबूरी नहीं, लोकतांत्रिक सहमति का माध्यम बनाया। NDA के भीतर सहयोगी दलों को सम्मान देना उनकी कार्यशैली की पहचान थी। उनका स्पष्ट मंत्र था—“संख्या से सरकार चलती है, लेकिन सहमति से देश।”
अटल सरकार की योजनाएं, विकास की ठोस नींव
अटल सरकार के दौरान शुरू की गई योजनाएं आज भी भारत की विकास रीढ़ मानी जाती हैं—
- स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना (नेशनल हाईवे नेटवर्क)
- प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
- अंत्योदय अन्न योजना
- नई दूरसंचार नीति
इन योजनाओं ने गांव, शहर और बाजार को एक-दूसरे से जोड़ा।
वाजपेयी को मिला सम्मान, जो सीमाओं से परे गया
अटल बिहारी वाजपेयी को 2015 में पद्म विभूषण और 2015 में ही भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उन्हें मिले ये सम्मान केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक मर्यादा, संवाद और राष्ट्र सेवा के लिए थे।
आज भी प्रासंगिक है “अटल युग”
अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे प्रधानमंत्री थे—
- जिन्हें विपक्ष सुनता था
- जिनकी भाषा में कटुता नहीं थी
- जिनके राष्ट्रवाद में मानवता शामिल थी
आज उनकी जयंती पर देश उन्हें सिर्फ याद नहीं करता, उनसे सीखने की ज़रूरत महसूस करता है। अटल बिहारी वाजपेयी- राजनीति में कविता, शक्ति में संयम और सत्ता में संस्कार का अटल नाम है।